17 सितंबर, 2010

waqt humare pass nahi hai

कितनी खामोश थी उसकी आँखें,
कितना कुछ कहना चाहती थी मेरी जुबां,
होठ हिलते, पर लब्ज न निकलते
हर बार कुछ कह कर भी कुछ न कह पते.
जाने कैसी थी वो बेबसी, कैसा दौर था वह भी;
था बहुत कुछ कहने-सुनने को पर,नहीं था तो वक़्त... .


सदियों बाद मिलें है हम,फिर बारिस कि बूंदों के साथ.
कभी भीगे थे साथ में हम,उसी वर्षा कि बूंदों से आज भी मेरी आत्मा भीगी है
एक सोंधी सी खुशबू अब तक बसीं है;
आज फिर बारिस ने हमें एक साथ भिगोया है,
वह गुजरा हुआ पल लौटाया है... .



मन तो अभी भी गिला-गिला सा है उसकी कोमल भावनायों से,
पर, है अब बहुत कुछ बदला-बदला सा.
कहना था मुझे बहुत कुछ,सुनना था उससे बहुत कुछ
पर वही बेबसी आज भी है, सब कुछ होते हुए भी 
बस वह वक़्त हमारे पास नहीं है.

30 जुलाई, 2010

हम इंसान है!

हाथों की अनबुझी लकीरों में जकड़ा इंसान हमेशा अपने भविष्य को जानने की चाहत में उतावला रहता है। उस कल के बारे में सोचता है जिससे वह अनजान है। हम "कल क्या होगा " की फिक्र में "आज क्या करें" भूल जाते हैं। सदियाँ बीत गयी पर, हम आज भी बदले। हम भूत- भविष्य और इस ग्रह-नक्षत्र के चक्कर से कभी आजाद नहीं हो पायेगे। हीरा पहनो, भाग्य चमकेगा...मोती पहनो, मन शांत रहेगा...जाने क्या - क्या पहना और करना पड़ता है अपने को कामियाब बनाने के लिए।
मनुष्य अपनी गलतियों से सीखता है। जानवर भी अपनी गलतियों से सीखते हैं। लेकिन दोनों में फर्क है। जानवर अपनी गलती नहीं दुहराते, मनुष्य दुहराते हैं। जानवर आज में जीता है और हम कल में जीते हैं। हम या तो बीत चुके कल में जीते हैं या फिर आने वाले कल में जीते हैं। एक बात तो पक्की होती है किहम किसी भी हाल में आज में नहीं जीते।

28 जुलाई, 2010

पर - कटी

मैं उड़ती हुई चिड़िया थी,
मुझे कैद किया गया।
कैद के अन्दर कोशिश कि...
और पंखो के संघर्ष की आवाज से तंग हो,
काट किये मेरे पर।
अब मैं सिर्फ आसमां को देखती हूँ,
नीले रंग के इस अनोखे जहाँ को तकती हूँ।
सब से ऊँचा उड़ना चाहती थी, औरों से आगे निकलना चाहती थी
छोटे से पंखो को फैला कर विशाल आसमां ढँक लेना चाहती थी...
अब बेबस हूँ क्यूंकि...मैं पर-कटी चिड़िया हूँ।

अगर देखनी हो मेरी उड़ान...

अगर देखनी हो मेरी उड़ान,
तो आसमां को और ऊँचा कर दो
जो पंख मैं फैलाऊ तो इस जहाँ को और बड़ा कर दो।
अपनी परछाई कि साथी हूँ, अपनी ही दुनिया में जीती हूँ
कौन हूँ मैं, क्या हूँ मैं
मैं तुम्हे क्यों बताऊ
जो तुम देखना चाहो वजूद मेरा
पहले दिल अपना साफ़ कर के देख लो
अगर देखनी हो मेरी उड़ान
तो आसमां को और थोडा ऊँचा कर दो।

02 जून, 2010

शिष्टता में कैद बचपन...

बाल मजदूर सिर्फ गरीब परिवार के बच्चे नहीं होते है। हाई सोसाइटी के बाल मजदूर थोड़े अलग होते है। यहाँ उन्हें हर काम अपने मम्मी-पापा की आज्ञा के मुताबिक करना होता है। अभिभावकों के शिष्टाचार में गुम होते बचपन के बारे में किसी ने सोचा है?
कहते है कि ईश्वर बच्चो की हँसी में बस्ता है, क्योंकि वह भी जनता है कीउम्र के बाकि पड़ाव में लोग चेहरे पर हँसी के मुखौटे पहन लेते है। इस सचाई से हम सब वाकिफ है कि दुनियादारी किसी को मासूम नहीं रहने देती। फिर क्यों वक़्त से पहेले ही कुछ अभिभावक अपने बच्चो की मासूमियत की हत्या कर देते है? सरकार का ध्यान बाल-मजदूरी पर तो जाता है लेकिन बड़े घर के उन बच्चो पर नहीं जाता जो एक तरह से बंधुआ मजदूर की तरह ही अपना जीवन गुजार रहे है। बाग़ के माली को पता है कि उसके पौधे के लिए क्या सही है और क्या गलत। परन्तु, ध्यान देने वाली बात यह है कि क्या माली को पता है कि जो वह कर रहा है वह सही कर रहा है?
सुनहरे धागे की डोर से बंधी बुलबुल , सोने के पिंजरे में भी ख़ुशी का गीत नहीं गा सकती। उसे उड़ने को खुला आसंमा चाहिए। बच्चो का बचपन भी इस बुलबुल की तरह ही है। अभिभावकों को समझना होगा कि बचपन की स्वतंत्रता अशिष्टता का अभिप्राय: नहीं है। बल्कि उसके संम्पूर्ण विकास की सीढ़ी है।

31 मई, 2010

पर्दा है यह पर्दा...

पर्दे में रहने दो पर्दा ना उठायो, पर्दा जो उठ गया तो राज खुल जायेगा...गाना खुबसूरत है और इस फिल्म की अदाकारा भी बेहद सुन्दर थी। परन्तु, पर्दे में ही वह रहती तो क्या खुद की पहचान बना पाती? आपको आइना फिल्म का गाना भी याद होगा...आइना है चेहरा मेरा...और इसी आईने को इंसानों ने ढ़क रखा है !
मैं महिलायों के पर्दे करने के खिलाफ नहीं हू और न ही इसके समर्थन में। क्योकि मेरे लिए चेहरे को पर्दे में रखना ठीक उसी तरह है जैसे मेरे कमरे की खिड़कियों पर लगे पर्दे है। जब सुबह की रोशनी चाहिए, तो मैं पर्दे को सरका देती हू । सच मानिए, आत्मा और सूरज की लालिमा दोनों एक-देशों के आगोश में होते है। पर्दा करना मेरी जरूरत है मज़बूरी नहीं। धूप में रंग सांवला नहीं होने देता, मनचलों की नजरों में आने नहीं देता और भीड़ में मेरे मन के भाव छिपा लेता है।
फ्रांस और बेल्गियम में औरतो के बुर्के पहने पर रोक है। भारत-पाकिस्तान आदि कई देशो में पर्दा करना मज़हब से जोड़ा जाता है। अजीब बात है पहले मज़हब के ठेकेदार तय करते थे कि औरतो को क्या पहना है और क्या नहीं पहना। अब यह काम सरकार करेगी।
मन में दो सवाल है-क्या औरतो के पर्दे में रहने से बलात्कार की संख्या कम हो जायेगी? और क्या उनके पर्दा न करने से पुरुष वर्ग हर चौक-चोराहे पर लार-टपकते नज़र आयेगे? बुर्के पर राजनीति करने वालो कृपा कर अपने सोच को बदलो। औरते क्या पहनेगी, कौन से लिंग का बच्चा जन्म देगी, यह सब सवाल हमारी सड़ चुकी मानसिकता की वजह से है। एक तरह की अजीब-सी बू है इन सवालो में जो बार-बार इस बात की तरफ इशारा कर रही है कि आजाद देश के नागरिक, अपनी "पुरुषत्व" की भावना में कैद है। हमे याद रखना चाहिए की लाज का पानी आखों में होता है और अगर यही सूख जाए तो यही आख़े सात ताले पार भी जिस्म को भेद सकते है।

18 मार्च, 2010

इंग्लिश का भूत

आँखे बंद है। अंधरे कमरे से आवाज़ आ रही है - "...कैरियर बनाना है तो इंग्लिश सीखो ...,...छे महीने में फर्राटेदार अग्रेजी सीखे..."। मोबाइल पर मेसेज टोने बजता है। अचानक राज की नींद टूटती है। देखा घडी में सात बजने वाले थे। वह मेसेज देखता है । मोबाइल कंपनी की ओरसे मेसेज था जो हिंदी दिवस पर फ्री शेरो-शाएरी मेसेज पैक देने की बात कर रहा था । कैलंडर की तरफ देखता है तो आज १४ सितम्बर है। जल्दी से उठता है और तैयार हो कर घर से निकलता है।

रस्ते में एक दुकान पर चाये पिने रुकता है। कुछ लड़के इंग्लिश में बाते कर रहे है...

"यार इट्स वैरी इम्पोर्टेन्ट टू लेअर्ण इंग्लिश..."

..."एस यू आर राईट। एवेरी जॉब डिमांड इंग्लिश स्पेअकिंग बॉय..."

राज चाये पीते हुए उनकी बाते सुनता है ओर चल देता है। वह एक बिल्डिंग के अन्दर जाता है जिस के ऊपर लिखा है...छे महीने में अग्रेजी बोलना सीखे।

क्लास के अन्दर- राज बेठा हुआ है , सर इंग्लिश बोलने की क्लास ले रहे है और इंग्लिश की महत्वता को बता रहे है..."टू लीव इन थिस वर्ल्ड यू मस्ट लेअर्ण थिस लैंग्वेज "। तभी एक स्टुडेंट बोलता है - " हम को तो इंग्लिश सिखने का है। अपनी इज्ज़त बढ़ेगी और आगे नौकरी भी मिलेगी..."। राज सोचने लगता है - "इनकी हिंदी कितनी ख़राब है। इन लोगो को तो हिंदी के व्याकरण के बारे में तो कुछ भी नहीं पता...हमारे शहर में इंग्लिश सिखाने वाले तो बहुत है पर हिंदी ठीक से बोलने वाले बहुत कम..."

घंटी बजती है और वह क्लास से बहार निकल जाता है। घर जाने के रस्ते में वह देखता है की सभी दुकानों पर इंग्लिश में नाम लिखे हुए है , लडको ने इंग्लिश में छापी टी-शर्ट पहन रखी है...उस हर तरफ इंग्लिश का ही बोलबाला देखाई दे रहा है। वह सोचता है की " हिंदुस्तान से हिंदी गायब हो रही है.... " (पीछे से गाने की आवाज़ आ रही है , "हिंदी है हम;हिंदुस्तान हमारा, हमारा....")

राज घर के पास पहुचता है। कुछ बच्चे खेल रहे है। एक बच्चा दूसरे बच्चे से बोलता है - "तुमने मेरा शर्ट फाड़ा है"।

"मैंने नहीं फदी है..."

तुम झूठ बोलते हो। अगर तुमने नहीं किया तो क्या मैंने किया?"

....राज बच्चो की बाते सुन रहा था। उसने दोनों को अपने पास बुलाया और बोला - "खेल-खेल में यह सब होता है। तुम लोग इतने अच्छे स्कूल में पड़ते हो फिर भी तुम लोगो को हिंदी ग्रामर नहीं आता है..."

एक बच्चा बोलता है-" भैया हम लोग हिंदी ग्रामर सिर्फ एक्साम टाइम पड़ते है इस में तो बस पास करना होता है..."

राज बोलता है-" ठीक है। मुझे पता है स्कूल में हिंदी को कितना महत्व दिया जाता है। मेरे उम्र के लड़के गलत भाषा बोलते है। आजकल तो बस सब को इंग्लिश सीखना है। तुम लोग मुझे ये बतायो की अगर मैं तुम लोगो को हिंदी ग्रामर सिखायु तो सीखोगे?"

एक बच्चा-" एस आई विल, लेकिन फिर आपको हम लोगो को किसी लेखक की कहानी सुनानी पड़ेगी। हमारे किताब में हिंदी लेखक की कहानी सिर्फ पाच- छे ही है"।

राज मुस्कुराने लगता है और सोचता है, हिंदुस्तान से अभी हिंदी पूरी तरह नहीं गया है।

(पीछे से गाने की आवाज़ आ रही है...हिंदी है हम हिंदुस्तान हमारा,हमारा.....)

12 मार्च, 2010

लेकिन यहाँ भी दोनों एक - दूसरेको अपना ग़रूर ही सौपते है.

05 मार्च, 2010

बलात्कार शरीर का नहीं होता.

८ मार्च को हम महिला दिवस मानते है। इस दिन के बारे में कहाजाता है किइस दिन को हम समाज में उनको उनके हक और सामान दे ने का निश्चय करते है...औरत कि इज्जत को पांच मीटर कि साड़ी में लपेटने वाले जब लोग इनके मान-सम्मान कि बात करते है टी आत्मा तड़पती है। मेरे अन्दर कि औरत रोने लगती है। क्या हम लड़कियों कि इज्जत दुपट्टे और साड़ी में लिपटी होती है जिसे जब चाहे कोई भी राह चलता हमारे तन से अलग करदे? क्या हमारी इज्जत कि इतनी ही औकात है कि हवा का तेज छोका भी उसे हिला ने?


समझ नहीं पाईआज तक कि वास्तव में बलात्कार किस का होता है? शरीर का,आत्मा का या औरत के आत्म-सम्मान का? मैं नहीं मानती कि बलात्कार शरीर का होता है। वास्तव में यह तो एक माध्यम है अपनी हवस मिटाने का और किसी के आत्म-सम्मान को रौदने का। एक औरत जब किसी मर्द को अपना तन सौपतीहै तो हकीकत में वह उसे अपना आत्म-सम्मान सौपती है। शरीर तो एक माध्यम होता है यह साबित करने के लिए कि हाँ,मुझे तुम विश्वास है"। आजकल तो गे और लिस्बियन का चलन जायज होगया है।

आइना नहीं रहा किसी का चेहरा.

चेहरे पर चेहरा, उस पर भी दूसरा चेहरा। न जाने और कितनी परतो से ढकरखा है, आदमी ने अपना असली चेहरा। एक शख्स के चेहरे अनेक। हर मोके के लिए इस के पास एक नया चेहरा है। कौन जाने,कौन है यह,क्या है यह रहस्य?पहले कभी शौक हुआ करती थी,किसे के रोटी कमाने का जरिया थी...आज आदत है,मज़बूरी है हर किसी को चेहरे बदल लेने की। आदमी को ऐसाकरने में अब कोई डर,संकोच,शर्म नहीं आती। हर पल झूट बोलता और लम्हे अपनी असलियत छुपता आन्द्मी जानता है तो मौके को देख कर अपना चेहरा बदल लेना का हुनर।
मैं भी इसी जात की हूमैं भी तो आदमी हू। नफरत है मुझे खुद से और चाहकर भी खुद को बदल नहीं सकती। मैंने भी कई चेहरे ओढ़ रहे है.हर मौके के लिए,हर शख्स और हर वक़्त के लिए मेरे पास भी है एक नया चेहरा। मैंने भी सिख लिया है चेहरा बदलना.पहले आसन नहीं लगता था,घिन्न आती थी पर, अब यही मेरी जिंदिगी है। अपना सब कुछ लुटा देने के बाद सिखा है इस जीवन को जीना...ऊपर-ऊपर हँसलेना,अन्दर-अन्दर रो लेना।

14 फ़रवरी, 2010

प्यार के साइड इफेक्ट

प्यार करना जुर्म है तो यह जुर्म हमसे होगया,काबिले माफी हुआ करते नहीं एसे गुनाह...रेशमी कपड़ो पर पेबंद सा लगने वाला यह इश्क समाज में अच्छे खासे इन्सान को मजनू या रोमीओ बना देता है। हम सभी प्यार करते है लेकिन 'लोग क्या कहेगे' सोच कर अपनी जुबा पर ताला lगा लेते है। आज तो लोगो को भगवान से ज्यादा शिव सेना का डर है. धर्मके रखवालो का मानाहै कि "आई लव यू " कहने का चलन पश्चमी सभ्यता कि वजह से है और प्यार में बेकाकीपनभी वही की देन है। मेरा उनसे एक सवाल है कि हमारी संकृति की धरोहर कही जाने वाली अजंता और एलोरा की गुफाये भी क्या २१वी सदी की देन है? जीवन के ९ रसो में एक रस है प्रेम का...और पूरी दुनिया आज इस से मुह फेर रही है। क्यों लोग भूल जाते है की यह जिंदिगी प्यार करने के लिए भी कम पड़ती है।

12 फ़रवरी, 2010

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कई दिनों बाद आज अपने ब्लॉग पर लिख रही हु। मुझे लिखना पसंद था, लेकिन पिछले कुछ समय से मैं वोह कोई कम नहीं कर रही थी जो मुझे अच्छा लगता हो। समाज की परवाह न करने वाली लड़की बदल गयी.