26 मार्च, 2009

कामर्शियल पॉलिटिक्स

बदलते वक्त में बहुत कुछ बदला है। आदमी से ले कर आदमी के सोचने का नजरिया बदला है। बदलाव कभी अच्छे के लिए होता अहि तो कभी कोई बदलाव मन को नही भाता है। अभी चुनाव का समय है, हमारी नज़र पार्टियों और नेतायो पर टिकी है। कौन क्या कर रहा है, कौन कैसे जीतेगा-हारेगा आदि पर हमारी नज़र गड़ी है। अगर चुनाव की बात करे तो पहेले की अपेक्षा काफी बदल गया है। पहेले सिर्फ़ राजनीती हुआ करती थी। अब कामर्शियल राजनीती होती है।
राजनीती पार्टिया जब अपने कम से जनता को लुभा नही पाई तो वह फिल्मी सितारों को चुनावी क्षेत्र में उतरने लगी है। हेमा मालिनी से ले कर प्रीटी जिंटा और राजेश खना से ले कर शाहरुख़ खान तक सभी कोई कही कही चुनाव प्रचार में लगे हुए है। क्या फिल्मी सितारे मुफ्त में चुनाव प्रचार करते है? नही हर का अपना रेट होता है। जो जितना पोपुलर उसका उतना फायदा। यानि जनता के पैसो से सितारों को जमीं पर उतरा जा रह है। अगर कांग्रेस की बात करे तो इसने गोविंदा, शारुख, प्रीटी जिंटा, अजहरुद्दीन और रुबीना, नगमा, क्रिकेट स्टार अजहरुद्दीन, असरानी, राजू श्रीवास्तव आदि को अपने प्रचार के लिए लिया है। जय हो गाने का भी कॉपीराइट कांग्रेस के पास है। इस पार्टी का गुणगान करता हुआ एक गीत भी आज कल टी.वी पर प्रसारित होता है।
ये तो मात्र एक उदाहरन है। बाकि पार्टियों का भी यही हाल है। जनता के पैसो पर तो नेता सालभर राज करते है पर, चुनाव के समय प्रचार के लिए पानी तरह पैसा बहना जनता को अखड़ता नेशनल लेवल से निचे की बात करे तो यहाँ के नेता अपनी पार्टी के प्रचार के लिए अखबार और टी.वी पर अपना रेट तय करते है। ठीक वैसे ही जैसे वियापन के लिए रेट तय करते है। बस अंतर इतना ही है की यह वियापन जैसा न हो कर ख़बर जैसा दीखता है।
मुश्किल यह है की आप इसे ग़लत भी नही कह सकते। वह दिन दूर नही जब कोई बड़ी कंपनी किसी पॉलिटिकल पार्टी को चुनाव के लिए फंड करे। और एसा जल्दी होगा तो आप हेरान मत होयिगा।

20 मार्च, 2009

आज के युवा "मैं" के अहम् से ऊपर उठाकर सोचते है। ६० साल के युवा भारत की ये विशेषता है। इस गला काट कम्पीटीशन के युग में जहा एक दोस्त ही दूसरे दोस्त का कम्पीटीटर है वही, इस भीड़ में कुछ युवा आपको ऐसे भी मिलिगे, जिनका मजहब ही एक दूसरे की मदद करना है। साठ वर्ष के आजाद इस मुल्क के युवा वर्ग को आगे बढ़ना आता है । ये एक दूसरे के कन्धो पर रख कर आगे नही बढ़ते, बल्कि एक दूसरे का हाथ पकड़ कर अपनी मंजिल को पाते है। २१वी सदी का यह फलसफा है-जियो और जीने दो। पिछली दो पीढियों की तुलना में हम भावनाओ और मुद्दों को लेकर कट्टर नही है। बल्कि जुनूनी है और हमारे जुनून को सही दिशा चाहिए। हम बात बात पर १९४७, १९६१-६२ और १९९९ को याद नही करते। हमने पापियों से नही बल्कि उनके पापो से नफरत करना सिखा है। हम युवा वर्ग को इससे कोई फर्क नही पड़ता की हमारे दोस्त ओबीसी है, सिख है, या मुस्लिम। हम इंसान को नही इंसानियत को पहचानते है। आज के नौजवानो को इसके अलावा कुछ और जानने की दरकार नही है। गाँधी, पटेल और नेहरू के भी यही विचार थे। सन १९४७ के समय कुछ ही लोग दिल से धर्म निरपेक्षता के समर्थक होगे। पर, सन २००८ में लगभग हर युवा खुल कर धर्म निरपेक्षता को समर्थन देता है। देखा जाए तो जिस भारत का सपना बापू ने देखा था, उस भारत की नींव इन बीते साठ में वर्षो में चुकी है। और हम समस्त युवा वर्ग को यह चुनौती स्वीकारनी होगी कि इसी नींव पर हमें डेवलप्ड इंडिया की वह शानदार ईमारत तेयार करनी है, जिसे कोई लादेन या सलेम नही गिरा सकता। आज के हर युवा में डीजे और गुरु छिपा है। जो देशभक्ति का दिखावा नही करता। पर,वह अन्दर से उतना ही देशभक्त है, जितना चंद्रेशेखर आजाद और महात्मा गाँधी थे।
पर,चुनाव के समय नेताओ के भाषण हमें शर्मशार का देते है। वरुण गाँधी से यह उम्मीद तो कभी न थी। जिनके पूर्वज हमेशा धर्म निरपेक्षता को समथर्न देते थे आज उन्ही के वंश ने सांप्रदायिक भाषण दिया। क्या चुनाव जितना इतना जरूरी होता है? अगर हां तो फिर बापू के नाम को अलग कर दो.

17 मार्च, 2009

लोग क्यों लिखते है? मुझे इस बात से जयादा फर्क़ नही पड़ता। पर मेरे लिए लिखना उतना ही जरूरी है जितना सास लेना। मेरे जीवन में लिखना क्या है और इसकी एहमियत क्या है यह शायद ही कोई जान पायेगा। पर जब कुछ ठीक नही होता है तो मैं अपनी कलम के साथ रहना ज्यादा पसंद करती हू।

चुनाव के वक्त फिजा में चुनावी महक घुल जाती है। ऐसे में ब्लोग्ग बनाने का आइडिया आया । सोचा की बोर होने से अच्छा है कुछ क्रियेटिव किया जाए । क्यों कि जब एल.के अडवानी अपनी ब्लोग्ग से छाए हुए है तो मैं भी कम से कम अपनी ब्लोग्ग तो बना ही सकती हू । चलो इस चुनाव से एक फायेदा तो मुझे हुआ ही ...

hope 4 d bst