08 जून, 2017

ये कौन लोग हैं ?


मशहूर एक्टर और फ्लिम निर्माता गुरु दत्त साहब ने "प्यासा" फिल्म 1957 में बनाई थी. मुझे ये फिल्म देखने का सौभाग अपने कॉलेज में मिला था जब मेरे डाक्यूमेंट्री टीचर, "श्री मेघनाथ सर" जी ने ये फिल्म दिखाई। इस फिल्म के एक दृश्य में एक तवायफ़ अपने ग्राहक को खुश कर रही होती है तभी उसका बच्चा भूख से रोने लगता है। वह अपना नाच छोड़ जाना चाहती है ताकि अपने भूखे बच्चे को अपना दूध पीला सके। पर, उसे जाने नहीं दिया जाता। कभी मौका मिले तो ये फिल्म देख लीजियेगा।
                         यकीकन नहीं होता। सच,मनो अब भी विश्वास नहीं हो रहा कि अपनी हवस को शांत करने के लिए के लिए तुमने 9 माह की बच्ची को फेक दिया। क्यों ? इज्जत तो तुम लूट ही रहे थे। उसके कपड़ों के साथ उसकी आतम को भी चिर रहे थे। वह तो वैसे ही असाहय-सी थी। फिर क्या जरुरत थी हैवानिएत  की नयी परकाष्ठा साबित करने की?      
            मुझे पता है, तुम मिलोगे कहीं। मेरे साथ ट्रैन में होंगे, बस में, भीड़ में मेरे बगल में खड़े हो मुझे सुघने की कोशिश करोगे। कैसे पहचानूँगी तुम्हे? एक आम-सी लड़की को देश  की "निर्भया" बनाने वाले तुम्हीं थे न? तुम ही हो न उस एसिड अटैक के पीछे वाले हाथ के मालिक ?  और हाँ ,वह तुम्ही हो न लड़कियों  का चरित्र उसकी स्कर्ट की लम्बाई से नापने वाले?
                           वाह रे! मेरा देश और मेरे देशवासी। गौ-हत्या महापाप है। हर तरफ इसके लिए सजा की मागँ हो रही है। कितने गौ-कत्लखानों को बंद करा दिया गया। उस में काम करने वाले मजदूर अपने लिए रोटी का इंतजाम कैसे कर रहे है ,यह वहीं जाने।
                      हम मरी हुई गाय की चमड़ी उखाड़ने वाले को मार-मार कर अधमरा कर देते है।  लेकिन 17 साल का लड़का बलात्कार करते हुए लौहे की रॉड को एक लड़की की योनि में घुसा देता है तो उसे नाबालिक कह कर छोड़ देते है। मुझे घिन्न  आती है ऐसे दोगले विचारधाराओं वाले समाज से। आप लोग नज़र उठायो, समझो! मंदिर-मस्जिद , गौ-हत्या सिर्फ मुद्दा है; राजनीतिक मुद्दा। विकास का सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए कि बलात्कारियों को मौत की सजा मिलनी और उसे काम कुछ  भी नहीं।

 


11 अप्रैल, 2017

चाहत है अगर सुकून पाने की...


आध्यात्मिक लेखक रोबिन शर्मा ने "5 o'clock club" के बारे में लिखा है कि जिस व्यक्ति के दिनचर्या में सुबह उठना शामिल है, वह अपनी जिंदिगी ज्यादा व्यवस्थित ढंग से और सुकून से जीता है। हमारे भारतीय संस्कृती में तो बर्ह्म मुहर्त में उठने की परम्परा है।परन्तु, वैश्यविकरण और नीजिकरण के कारण हमारी जीवन शैली बहुत बदल गयी है। 9 टू 5 जॉब बस कहने भर को है।वरना,अब तो 12-13 घण्टे काम करना पड़ता है।आज की तारीख में सरकारी और गैर-सरकारी दफ्तरों में काम का बोझ बढ़ता ही जा रहा है।ऐसे में जो इंसान रात के एक बजे सोये वह सुबह 5 बजे कैसे उठे? यह सावल नही समस्या है।इसका समाधान भी हमारे-आपकी आँखों के सामने है। जरूरत है तो watsup को ऑफ करने की,फेसबुक से लॉगआउट होने की और टीवी के रिमोट को छोड़ने की।
                        जी हाँ,आपने सही बात पकड़ी है। आप जितनी जल्दी इन चीजों को अपने से दूर करेगें उतनी जल्दी आप बिस्तर पर,किसी अपनो के कंधे को तकिया बना कर सो रहे होंगे। जब ऐसा सोच कर ही इतना सुकून मिल रहा है तो ऐसा कर के भी देखिए। ऐसा करना मुश्किल है इसलिए हम इसे तीन स्टेप में करने की कोशिश करेगें।

                 " नियम  "
1) रात 11:00 बजे के बाद इंटरनेट का इस्तमाल नहीं करना।
2)रात 11:30 बजे के बाद नाही टीवी देखना और नाही फ़ोन पर बात करना।
3)  सुबह 6:00बजे उठना।
    
 फर्स्ट स्टेप- पहले तीन दिन इन नियमों का पालन करें।अगर आपने यह तीन दिन पार लगा लिया तो सचमुच आप में बहुत हिम्मत है।
   
  सेकण्ड स्टेप- अब पाँच दिन का लक्ष्य रखें।आपने अगर इन आठ दिनों को भी पार कर लिया तो आपमें अपनी जिंदिगी को बदलने की अद्भुत शक्ति है।
      
थर्ड और आखरी स्टेप- अपनी 8 दिन की कठोर तपस्या की सफलता की ख़ुशी को दो-से गुना करें और अगले 16 दिन इंटरनेट और टीवी को जल्दी शुभरात्रि बोलें।
                        आपने पूरे 24 दिन इस कठिन नियमों का पालन किया है।अब यह नियम आपको कष्टदायक नही लगेंगे क्योंकि अब-तक यह आपकी आदत बन चुके होंगे। मनोविज्ञान कहता है कि किसी भी मनुष्य को कोई भी आदत विकसीत करने में 21 दिन लगते है और ज़नाब, आपने तो 24 दिन पूरे किये है।
                       आज की खुशहाल जिंदिगी के बस यहीं तीन नियम हैं। जहाँ इतना पैसा कमाया हैं वहाँ, खुद के लिए थोड़ा सुकून भी खरीद लो।

06 अप्रैल, 2017

राम नहीं, रावण भी नही.... चाहिए तो सिर्फ विभीषण !!!

मेरे अंदर राम नहीँ। मेरे अंदर रावण भी नहीं है। अगर कोई है तो सिर्फ विभीषण  है। चौकाने की कोई बात नही है। राम को कभी मैंने भगवान् माना ही नही। राम की मर्यादापुर्षोत्तम वाली छवि कभी मेरे मन-मंदिर में आयी ही नहीं। जब संबंधों की समझ नही थी तब भी कभी मैंने राम को नही पूजा। अब तो स्त्री-पुरूष की देह से लेकर आत्मा तक के रिश्ते को जानती हूँ। ऐसे में पत्नी से अग्निपरीक्षा  दिलाने वाले पति को कैसे पूजती ?
           हाँ , मेरे अंदर विभीषण रहता है। और कोई भी युग क्यों न हो; राम-रावण बनना आसान है पर, विभीषण को जीना बेहद मुश्किल है। राम अच्छाई के लिए लड़े। रावण अपने अहंकार के लिए लड़ा। परन्तु, विभीषण सच के लिए लड़े। युद्ध भूमि में शत्रु को मारने के लिए हिम्मत चाहिए। पर, उसी युद्ध भूमि में अपने को मारने के लिए बहुत बड़ा कालेजा और दिल  की ईमानदारी चाहिए। 
                          लोग कहते है कि " कैकई जैसी माता और विभीषण जैसा भाई भगवान् किसी को न दे"। क्यों? क्योंकि विभीषण ने रावण का भेद उसके शत्रु राम को बतलाया था। आपने तो वह मुहावरा सूना ही होगा "घर का भेदी लंका ढाये"।  तुलसी हो या रहीम हो किसी की कृति में विभीषण को सम्मान नही मिला... कम-से-कम मैंने तो  नही पढ़ा आजतक।  धर्म की किताब पढ़ने वालो ने सिर्फ राम की जीत देखी ; रावण का नाश देखा; सीता का वनवास देखा... नही देख पाए तो विभीषण का त्याग-उसकी हिम्मत।  रामानंद सागर की रामायण मैंने नही देखी। २००८-२००९ साल ठीक से याद नही, उस वक़्त  NDTV Imagine पर रामायण सीरियल आता था।  वह देखा था मैंने। इस सीरियल की पटकथा पहले वाले रामायण सी ही थी पर, इसका दृष्टिकोण नया था।  फिर  अभी कुछ महीनो पहले तक स्टार प्लस पर "सिया के राम" आता था।  वह भी देखा है मैंने।विभीषण का भाई प्रेम देखा। अपनी भाभी के प्रति उनका सम्मान देखा। और जो मेरी समझ में आया वह थी सच के प्रति उनकी निष्ठां।  
                                              हम  सब के अंदर बसे  रांम-रावण को कुछ न कुछ चाहिए। किसी को प्यार,किसी को घर-द्वार, किसी को देह, किसी को भोग-विलास।  परन्तु, सच किसी को नही चाहिए।  क्योंकि किसी के अंदर विभीषण  नही है।  मुझे लगता है कि भगवान् या  शैतान बनना आसान है पर, इंसान बने रहना मुश्किल है। तभी शायद आज कल हर तरफ इतना कोलाहल है.....