19 अक्तूबर, 2019

तपस्या....

श्रेष्ठ..... मैं कितनी कमजोर हूँ, इसका एहसास तुमने कराया है. तुम्हारी चोट, दर्द से इतनी घबराती हूँ कि सूखे पत्ते-सा हील जाती हूँ. कभी भीड़ से ना डरने वाली लड़की, माँ  बनते ही भीड़ से डरने लगती है. मेले में, रोड पर, तुम्हारी ऊँगली जोर से पकड़े रहती हूँ. और अगर एक पल को भी साथ छूटता है तो सांस थम सी जाती है. मेरा एक रूप डरी-हुई माँ का भी है, ये तस्वीर तुमने मुझे दिखाई है.
                श्रेष्ठ...... वही डरी-हुई माँ झूठी है इसका भी एहसास तुमने ही कराया है. पता है कि चोट है, दर्द में हो फिर भी कहती हूँ, "अरे !ये तो कुछ भी नहीं है... जाओ  खेलो ". और तुम खेलने लगते हो .  बुखार-सी जलती आँखे जब तुम मींचते हो तब भी झूठ बोलती हूँ, " ऐसे eyes मींचोगे तो इंजेक्शन लगाना पड़ेगा".  और तुम अपना हाथ तुरंत रोक देते हो.
                        श्रेष्ठ.... तुम्हीं हो, जिसने ये यकीन दिलाया कि इन कमजोर रूपों  के बाद भी मैं वह माँ हूँ जो आधी रात में भी तुम्हें अकेले हॉस्पिटल में एडमिट करा सकती हूँ , तुम्हारे घाव को हसँते हुए और तुम्हें हसांते हुए साफ़ कर सकती हूँ . पता नहीं पर, तुम्हें दुःख में देख एक जुनून सवार हो जाता है कि बस, तुम्हें हँसाना है.  इसी जुनून कि खातिर कभी झूठी तो कभी मतलबी बन जाती हूँ.
                   आज-पता चलता है, माँ -बाप बनाना तपस्या है. बाप की मजूबरी होती है कि वह लाख चाह कर भी घर रह बच्चों कि मरहम-पट्टी नहीं कर सकता और माँ लाख चाह कर भी बच्चों को चोट लगने से, बीमार होने से बचा नहीं सकती.

उम्मीद करती हूँ  कि मेरी और सुमित की  तपस्या सफल हो. और श्रेष्ठ तुम यूँही खेलो-कूदो, अपना बचपन भरपूर जियो. हमें दोनों है.

ईश्वर आशीर्वाद देना  !!!

27 मई, 2019

अभी सीख रही हूँ....

                                                                अभी सीख रही हूँ.... 
हाँ , मैं अपने बेटे श्रेष्ठ से आजकल रोज कुछ न कुछ नया सीख रही हूँ। जब-जब उसको गौर से देखती हूँ,तो यह विश्वास पक्का हो जाता है की भगवान है।  श्रेष्ठ आठ महीने का है और वह घुटनों के बल चलता है। अपनी हाइट की चीजों को पकड़ कर खड़ा होने की कोशिश करता है। इस कोशिश में वह कई बार गिरता है फिर भी अपनी कोशिश जारी रखता है। चोट लगती है, रोता भी है, परन्तु इस सब से उसका हौसला काम नहीं होता। वह तब तक नहीं रुकता जब तक वह खड़ा नहीं हो जाता।  अभी उसने एक हाथ से कुर्सी को पकड़ा है और दूसरे हाथ से मुझे इशारा कर रहा है,मानो  बोल रहा हो -"देखो मम्मा , मैं खड़ा हो गया " .  इस उम्र में मैं अपने बेटे से "कोशिश करना" सिख रही हूँ।
                                              मैंने कई और भी बाते सीखी है. सबसे महत्वपूर्ण बात , " अपने दिल की सुना " . आजकल वह हर चीज को मुहँ में लेता है।  अगर उसे उसका स्वाद अच्छा लगा तो खाता है नहीं तो छोड़ देता है।  जूता -चप्पल , खिलौना ,कंघी ...जो कुछ भी उसके हाथ में आये वह सीधा उसके मुहं में जाती है। श्रेष्ठ को इस बात से को फ़र्क नहीं पड़ता की वह गन्दा है या इस चीज को मुहं में नहीं लेते।  वह तो बस अपने दिल की करता जाता है। अपनी इस दिल की बात सुने के कारण कई बार वह बीमार पड़ा है. मेरे से थप्पड़ भी खायी है. फिर भी वह नया स्वाद चखने से बाज नहीं आता।  इस उम्र मे मैं यह सिख रही हूँ की सारे  काम दुनिया के लिए नहीं होते। कुछ काम दिल की ख़ुशी और मन के सकून  के लिए भी होते है।
                             माँ बनने के बाद जो एक बहुत बड़ी बात मैं ने अपने बेटे से  सीखी  ,वह है ," छोटी-छोटी बातों में ख़ुशी ढूंढ लेना" । सच में, जब से ये सीखा है मानो जिंदिगी नयी सी हो गयी है। बॉटल का ढक्क्न, चावल का दाना ,ज़मीन पर सुख चुके दाल का पानी ... इन सब को छू कर ही श्रेष्ठ ऐसे मुस्कुराता है मानो उसे दुनिया की कोई कीमती वास्तु मिल गयी हो। जो सामान मुझे कचड़ा लगती है वह श्रेष्ठ के लिए किसी खजाने से कम नहीं होता।वह बेकार सी पड़ी चीजों में अपनी ख़ुशी ढूढ़ लेता है। उसको मुश्कुराने के लिए कोई बड़ी वजह का इंतिजार नहीं रहता. वह छोटी-छोटी चीजों को ही छू कर, महसूस कर के ही खुश हो जाता है। आजकल मैं भी सिख रही हूँ छोटी -छोटी बातों पर जश्न बनाना. अब स्पेशल का इंतिजार नहीं रहता। जो है,जितना है,उसे ही स्पेसेल मान ख़ुशी बना लेती  हूँ।
                      आज उसको सुलाने के बाद मन में सोचती हूँ की , अपने बेटे के साथ मैं दुबारा बड़ी हो रही हूँ। पहले तो सिर्फ शरीर बड़ा हुआ था, अब आत्मा का विस्तार कर रही हूँ। यह बात तो आप भी मानते होंगे कि बढ़ती उम्र के साथ दिल खाली करना आसान नहीं होता  है। बर्थडे केक पर मोमबत्ती बढ़ती जाती है और साथ ही हमारा तर्ज़ुर्बा भी जो हमें हर बार दिल की सुनने नहीं देता।  अंदर-अंदर बहुत कुछ पकता-जलता है। पर, सब के सामने उसे परोसे ये मुनासिब नहीं है। निभाने होते है हमे कायदे-समाज के बने नियम। हमारे अंदर का इंसान भले ही सिसक-सिसक कर मर जाये; पर, हमारा समाज जिन्दा रहना चाहिए। क्यों??
             पता है, हमारे-आपके अंदर और बाहर दो अलग-अलग दुनिया बसती है। अंदर की दुनिया में  हम-आप चैंपियन है और बाहर की दुनिया में  मीडियोकर-समान्य नागरिक है। आखिर क्यों हम-आप एक सामान्य नागरिक बन कर जिए ? जब काबिलियत है अव्वल बनने की तो क्यों हम उस दौड़ में दौड़े जो हमारी नहीं है-हमारे लिए नहीं है। जानते हैं  हम की अपनी दौड़ में दौड़ेगे तो चैंपियन से कम नहीं होगे तो क्यों नहीं सुनते है हम अपने दिल की बात? क्यों???
                      बचपन से ही  हम अपनी कहानी के हीरो होते है। पर, जिंदिगी की रेस में जीरो । हमे नहीं समझ में आती ये दुनियादारी-ये रिश्ते-यारी। नहीं आता मौके का फायदा उठाना, लोगो को इस्तेमाल करना। अगर कुछ आता है तो अपनी दिल की सुनना -दिल की करना। और हमें यह नहीं करने दिया जाता। रोटी-कपड़ा -मकान की चाहत में हम कभी वह नहीं बन पाते जो हम बचपन में बनाना चाहते थे। साली जिंदिगी ने एक चीज सिखाई की "हमेशा दिल की सुनो, वह कभी  गलत नहीं होता ", और बेवफा जिंदिगी यही नहीं करने देती। बाकी सब की सुनती है- माँ-बाप की, भाई की, दूर के फूफा जी की, दो मकान छोड़ कर जो शर्मा जी रहते है, उसकी भी सुनती है -बस अपने दिल की नहीं सुने देती।  क्यों???
                                क्योकि ये डरती है गलत होने से। क्योकि इसे डर लगता है अपने को सही साबित करने में। वाह रे!जीवन। तुझे जीना भी सीखा है मर-मर के। कभी जीता नहीं तुझे, सिर्फ हारने के डर से। लेकिन ऐसा कब तक चलेगा? कब तक अनसुनी कर पाएंगे खुद की आवाज़ ? एक दिन तो कोई घंटा ऐसा बजेगा जो कानों के परदे पर टकराएगा ; गूजें की आवाज दिल के हर कोने में; फिर शायद कुछ बाहर निकल कर आएगा।  और तब अंदर-बाहर की दुनिया का अंतर मिट जायगा।  रेस भी होगी अपनी और अपना नंबर भी अव्वल आएगा।
 पर , ये तब होगा न  जब हम अपनी दिल की सुनेगे.... कुछ नया कारने की हिम्मत करेंगे।  बच्चे को हम बहुत कुछ सिखाते है , और खुद कितना कुछ उनसे सीख  सकते है।  शायद इसलिए "child is  a father of man" कहा गया है।
                 

अपने-अपने मायने

                                        

एक कप चाय से शुरू होती उसकी सुबह, रात को एक गिलास दूध पर ख़त्म हो जाती है। चारु सोचती है की ऊपर वाले ने पेट तो सबको दिया है पर, किचन सिर्फ औरतों के लिए बनाया है। खैर, चारु को अपनी ज़िंदगी से कोई शिकवा-शिकायत नहीं है। वह खुश है। घड़ी के काँटों के बीच वह खुद के लिए वक़्त निकाल लेती है। ललिता,रूबी और रेने उसकी सहेलियाँ  हैं। महीने में कोई एक दिन उनका आपस में मिलना, गप्पें  मारना या मूवी  देखने का कार्यक्रम बन जाता है। मॉडर्न सोसाइटी में इसे किटी -पार्टी करना कहते हैं। और आज चारु का नंबर है। उसने अपने सभी सहेलियों को घर पर ही बुलाया है। अहमदाबाद में अप्रैल की धूप ने जून महीने की तपिश याद दिला दी है। मौसम का खौलता मिज़ाज देख कर चारु ने घर पर ही खाने- पीने का कार्यक्रम रखा है। 
                                                पांच-छ: लोगो का खाना बनाने के लिए चारु ने सोसाइटी की ही कुक, लम्हा को रख लिया है।  ३०-३२ वर्ष की लम्हा अपने काम में माहिर है। ८-१० लोगो की छोटी-मोटी पार्टी में लम्हा खाना बनाने में निपुण है। चारु की सोसाइटी में लम्हा की गिनती अच्छी कुक में होती है। 
                                                        ९ बजे मनीष ऑफिस के लिए निकल ही रहे थे की लम्हा आगयी। उसने बोला -"दीदी आप मेनु बता दो तो मैं तैयारी शुरू कर दूँ।" 
चारु-"बहुत कुछ नहीं बनाना। चार बजे मेरी सहेलियाँ आजायेगी। छोले -भटूरे बना दो। रायता और सूप बना देना। बाकि अगर टाइम मिले तो जो आसानी से बने एक आइटम और कर देना। वैसे कोल्ड-ड्रिंक्स और आइस-क्रीम है।"
लम्हा- "जी दीदी" . 
                               लम्हा को किचन का काम समझा कर चारु घर का बाकि काम निबटने लगी। बीच-बीच में वह जा कर लम्हा की भी मदद कर देती थी। चार बजते ही उसकी मित्र मण्डली उसके घर आ पहुंची। सब के आते ही लम्हा तीन रंग से भरे कोल्ड-ड्रिंक्स की ट्रे लिए हाजिर होगयी। सबके हाथ में गिलास था और पेट में बहुत सारी बातें। विद्वानों ने कहा है कि औरतों की सब मर्ज़ की एक दवा है- गप्पें लड़ाना। 
चारु ने बोला -" दो दिन बाद अक्ष्य तृतीया है।  क्या ले रही हो तुम लोग?" 
ललिता ने सबसे पहले बोला-"यार, सोने का भाव हर साल बढ़ता है। इस बार तो मैंने सोने की गिन्नी लेने का सोचा है। इन्वेस्टमेंट के लिए।"
रूबी-"गिन्नी? मैं तो गहने ही लूँगी। वह आजकल फैशन में है न बड़ी-बड़ी अंगूठी जैसा आलिया भट्ट ने कलंक फिल्म में पहना है। वैसी वाली।"
रेने-" हमारे ग्रुप में अगर कोई फ़िल्मी है तो वह है हमारी रूबी मैडम और अगर किसी का बिज़नेस माइंड  है तो वह है ललिता का। मैंने भी गहने लेने का ही सोचा है। इस बार हीरे की नाक की लौंग लूँ? कैसा आईडिया है? सी.जी रोड चले क्या?"
चारु-"तुम लोग चले जाना। मैंने कल रात जब मनीष से अक्ष्य तृतीया पर कुछ खरीदने की बात की तो भड़क उठे। बोलते हैं कि-तुम औरतों को तो गहने खरीदने का बहाना चाहिए। एक तो मार्च क्लोजिंग का टेंशन फिर इनकम-टैक्स का चक्कर। ऊपर से इन तीज-त्यौहारों का आना बंद नहीं होता।" चारु ने ऐसे मुँह बना-बना कर बोला की सब की हँसी निकल गई।  रेने अपनी हँसी रोकते हुए बोली-"यार मनीष भाई न एक दम कॉमेडी है।"  लम्हा इन सब की बातें सुन रही थी। हाथ उसके मशीन से चल रहे थे और दिमाग में उसकी बेटी की तस्वीर बन-मिट रही थी। टेबल पर खाना परोसने के बाद उसने चारु को पुकारा-"दीदी, एक बार आना।" चारु को अपनी व्यवस्था दिखाने के बाद उसकी प्रतिक्रिया जाने के लिए वह उसका चेहरा ध्यान से देख रही थी। चारु लम्हा के काम से बहुत खुश हुई। टेबल की सजावट देख सब ने लम्हा की तारीफ की। 
रूबी-"सच में लम्हा,तुम खाना बहुत स्वादिष्ट  बनाती हो। खाते ही मजा आ जाता है।" भटुरे का एक बड़ा निवाला मुँह में डालते हुए ललिता ने बोला -"लम्हा के हाथ में स्वाद है।"
सभी आनंद ले कर उसके बनाये खाने का लुफ़्त उठाने लगे। खाने की मेज पर एक बार फिर से शॉपिंग वाला टॉपिक आगया। चारु ने अचानक लम्हा से पूछ लिया-" लम्हा, तुम अक्ष्य तृतीया जानती हो? कुछ लेती हो उस दिन?"
                                     रेने को उम्मीद नहीं थी कि कोई लम्हा से,एक खाना बनाने वाली से गहने खरीदने के बारे में पूछेगा। पर, उसे चारु का व्यवहार पता है। वह हर किसी को बराबर का दर्जा देती है। हमारे घर में कामवाली के खाने-पीने का अगल बर्तन होता है। पर, चारु इन भेदभाव के विरुद्ध  है। चारु एक ही जात को नीच मानती है;जो चोरी का खाते  है।  बाकि सभी जाती उसके लिए बराबर है।  
लम्हा भी चारु द्वारा पूछे सवाल के लिए तैयार नहीं थी। उसकी गिलास में ऑरेंज जूस डालते हुए बोली-" अब चारु दीदी, आपसे क्या छिपाना।  हम रोज कमाने-खाने वाले लोग है। मैं इतनी मेहनत करती हूँ ताकि अपनी बेटी श्रेया को पढ़ा-लिखा कर कुछ काबिल बना सकूँ।" जूस का जग टेबल पर रखा कर वह अपना हाथ आँचल से  पोछते हुए आगे बोली-"दीदी अक्ष्य तृतीया के दिन या तो लोग सोना खरीदते है या किसी व्यपार का शुभारंभ करते है। क्योंकि अक्ष्य का अर्थ है जिसका कभी क्षय न हो, मतलब जो कभी खतम न हो। श्रेया की पढ़ाई आगे भी चालू रखने के लिए मैंने पिछले साल आज के दिन ही बैंक खाता खुलवाया था जिसमे मैं और मेरे पति हर महीने पैसे जमा करते हैं। बेटी की पढ़ाई पैसों के कारण नहीं रुकनी चाहिए। रही कुछ खरीदने की बात तो बेटी की पसंद की कोई किताब या उसकी जरूरत की कोई चीज़ खरीद लेती हूँ। अब अपनी-अपनी मान्यता है दीदी।" 
             अपनी बात ख़त्म कर लम्हा ने भोलेपन से उन चारों सहेलियों को देखा। फिर हरबड़ाहट में बोला-"अरे! देखो।  बात करने के चक्कर में राइता लाना भूल ही गयी। "
लम्हा की बातें वह चारों आँखें फाड़े और मुँह खोले सुन रही थी। जब वह राइता ले वापस आयी तो चारु ने उसका हाथ प्यार से पकड़ा और बोला-"असल में अक्ष्य तृतीया का पर्व तो तुम बनती हो। देखना, आज के दिन जिस तरह श्री कृष्ण ने सुदामा की कुटिया को महल में बदल दिया था, वैसे ही तुम्हारी बेटी तुम्हारे दिन बदल देगी।"
        लम्हा की आँखों में अपनी बेटी श्रेया का सुनहरा भविष्य चमक उठा। उस चमक के आगे हीरे की लौंग की भी चमक फीकी लगी।
                                                                                                                                                                                                                                                                           








16 फ़रवरी, 2019

विध्वंस जरुरी है...नया सृजन के लिए

ये कौन लोग है, जो इतनी नफरत लिए जीते है?  कहाँ से आती है इतनी हैवानियत? कौन सी धरती का अनाज खाते  है ये लोग? वह कौन सी हवा हैं  जहाँ ये लोग सांस लेते है? जो पुलवामा में हुआ वह किसी भी तरीके से इंसानी काम नहीं लगता।
जो शहीद हुए है अगर वह सरहद पर शहीद होते तो बात कुछ और होती।  प्राण निकलते शरीर से और आत्मा शांत होती। उनके घर वाले और देशवासी को इत्मीनान होता की उनके बच्चे ने जान गवाई जरूर है पर, लड़ते हुए। सुकून मिलता हम सबकी आत्मा को कि मौत की आँखों में देख कर उन्होंने अलविदा कहा।लेकिन, इस तरीके से मारना कायरता की हद को भी शर्मिदा करती है।पता है उस कायर को भी, शरहद पर  जीतने की औकात नहीं है उसकी। शायद इसलिए वह ऐसी घटिया हरकत कर हर बार अपनी 'जात'  दिखता है।  
मैंने तो बस दो तरह के जात को जाना है; एक प्यार की जात और नफरत की जात। इस दो के इतर और किसी धर्म/जात  को नहीं जानती। ये ठहरा हुआ वक़्त कुछ कहता है...शांति पसंद है हमारा वतन परन्तु, हमारी इंसानियत को हमारी कमजोरी समझ बैठा है वह। मुर्ख के सामने चुप होना अक्लमंदी है और उदण्ड को दण्ड देना  समझदारी है। बुद्दिजीवी लोगो का कहना है- युद्ध विध्वंस  लाता है। अब ये विध्वंस जरुरी है ताकि एक नया सृजन हो।  
आज वक़्त है कवि दुष्यंत  को याद करने का-
हो गयी है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, 
इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए। 

आज यह दिवार, पर्दों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।  

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, 
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी  चाहिए। 

मेरे सीने  में नहीं तो तेरे सीने  में सही,
हो कहीं भी आज, लेकिन आग जलनी  चाहिए।