31 मई, 2010

पर्दा है यह पर्दा...

पर्दे में रहने दो पर्दा ना उठायो, पर्दा जो उठ गया तो राज खुल जायेगा...गाना खुबसूरत है और इस फिल्म की अदाकारा भी बेहद सुन्दर थी। परन्तु, पर्दे में ही वह रहती तो क्या खुद की पहचान बना पाती? आपको आइना फिल्म का गाना भी याद होगा...आइना है चेहरा मेरा...और इसी आईने को इंसानों ने ढ़क रखा है !
मैं महिलायों के पर्दे करने के खिलाफ नहीं हू और न ही इसके समर्थन में। क्योकि मेरे लिए चेहरे को पर्दे में रखना ठीक उसी तरह है जैसे मेरे कमरे की खिड़कियों पर लगे पर्दे है। जब सुबह की रोशनी चाहिए, तो मैं पर्दे को सरका देती हू । सच मानिए, आत्मा और सूरज की लालिमा दोनों एक-देशों के आगोश में होते है। पर्दा करना मेरी जरूरत है मज़बूरी नहीं। धूप में रंग सांवला नहीं होने देता, मनचलों की नजरों में आने नहीं देता और भीड़ में मेरे मन के भाव छिपा लेता है।
फ्रांस और बेल्गियम में औरतो के बुर्के पहने पर रोक है। भारत-पाकिस्तान आदि कई देशो में पर्दा करना मज़हब से जोड़ा जाता है। अजीब बात है पहले मज़हब के ठेकेदार तय करते थे कि औरतो को क्या पहना है और क्या नहीं पहना। अब यह काम सरकार करेगी।
मन में दो सवाल है-क्या औरतो के पर्दे में रहने से बलात्कार की संख्या कम हो जायेगी? और क्या उनके पर्दा न करने से पुरुष वर्ग हर चौक-चोराहे पर लार-टपकते नज़र आयेगे? बुर्के पर राजनीति करने वालो कृपा कर अपने सोच को बदलो। औरते क्या पहनेगी, कौन से लिंग का बच्चा जन्म देगी, यह सब सवाल हमारी सड़ चुकी मानसिकता की वजह से है। एक तरह की अजीब-सी बू है इन सवालो में जो बार-बार इस बात की तरफ इशारा कर रही है कि आजाद देश के नागरिक, अपनी "पुरुषत्व" की भावना में कैद है। हमे याद रखना चाहिए की लाज का पानी आखों में होता है और अगर यही सूख जाए तो यही आख़े सात ताले पार भी जिस्म को भेद सकते है।