02 जून, 2010

शिष्टता में कैद बचपन...

बाल मजदूर सिर्फ गरीब परिवार के बच्चे नहीं होते है। हाई सोसाइटी के बाल मजदूर थोड़े अलग होते है। यहाँ उन्हें हर काम अपने मम्मी-पापा की आज्ञा के मुताबिक करना होता है। अभिभावकों के शिष्टाचार में गुम होते बचपन के बारे में किसी ने सोचा है?
कहते है कि ईश्वर बच्चो की हँसी में बस्ता है, क्योंकि वह भी जनता है कीउम्र के बाकि पड़ाव में लोग चेहरे पर हँसी के मुखौटे पहन लेते है। इस सचाई से हम सब वाकिफ है कि दुनियादारी किसी को मासूम नहीं रहने देती। फिर क्यों वक़्त से पहेले ही कुछ अभिभावक अपने बच्चो की मासूमियत की हत्या कर देते है? सरकार का ध्यान बाल-मजदूरी पर तो जाता है लेकिन बड़े घर के उन बच्चो पर नहीं जाता जो एक तरह से बंधुआ मजदूर की तरह ही अपना जीवन गुजार रहे है। बाग़ के माली को पता है कि उसके पौधे के लिए क्या सही है और क्या गलत। परन्तु, ध्यान देने वाली बात यह है कि क्या माली को पता है कि जो वह कर रहा है वह सही कर रहा है?
सुनहरे धागे की डोर से बंधी बुलबुल , सोने के पिंजरे में भी ख़ुशी का गीत नहीं गा सकती। उसे उड़ने को खुला आसंमा चाहिए। बच्चो का बचपन भी इस बुलबुल की तरह ही है। अभिभावकों को समझना होगा कि बचपन की स्वतंत्रता अशिष्टता का अभिप्राय: नहीं है। बल्कि उसके संम्पूर्ण विकास की सीढ़ी है।

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