30 जून, 2012

ek aur koshish...

 जिंदा रहेने के लिए आदमी का कुछ-न-कुछ करते रहेना जरुरी है. इस सच को  मैं मानती हूँ पर जब कोई खुद को जिंदा ही न समझे तो फिर??????  साँसों का चलना ही सिर्फ किसी के  जीवित रहेने कि निशानी नहीं होती. बहुत पहेले मैन एक पौधा लगाया था. सोचा था वह समय के साथ बढेगा और घना होगा. लेकिन  पानी और हवा की कमी के कारण वह पौधा समय से पहेले ही सुख गया. आज भी उस का एक पत्ता मेरी किताब के बीच में है. सुख चुके  उस पत्ते को जब-जब देखती हूँ मुझे मेरी नाकामयाब कोशिश याद आती है. एसा लगता है मानो मुझ पर सारा बाग़  हँस रहा हो. अपनी हार से उबरना मुश्किल होता है. उस से भी ज्यादा कठिन होता है अपने पराजय के साथ जीना. पर जो यह काम कर गया वह  आदमी कहा लता है. जिंदिगी  कि रहा में  कई उतर-चढ़ाव आते हैं . जो इनसे पार पता है वही तो जिंदा रहे का हक पता है. यही सोच कर फिर से  मैन कोशिश की है एक और पौधे को लगाने की. देखते है इस बार कौन हँसता है!!!!!



22 जून, 2012

कई दिनों से कुछ नया नहीं   सोचा है . "सोच" कि बंजर भूमि पर कई दिनों से विचारों का अंकुर नहीं फूटा है . ठूंठ पर चुके मस्तिक में नयी अनुभूति की कोई कोपल नही फूटी है . सुना है  गिली मिट्टी पर नए पौधे जल्दी पनपते है . चर्चा या विचार-विमर्श की बारिश हो तो मेरी सोच की जमीं भी कुछ नम पड़े और मैं भी नया सृजन कर सकूँ .