30 जुलाई, 2010

हम इंसान है!

हाथों की अनबुझी लकीरों में जकड़ा इंसान हमेशा अपने भविष्य को जानने की चाहत में उतावला रहता है। उस कल के बारे में सोचता है जिससे वह अनजान है। हम "कल क्या होगा " की फिक्र में "आज क्या करें" भूल जाते हैं। सदियाँ बीत गयी पर, हम आज भी बदले। हम भूत- भविष्य और इस ग्रह-नक्षत्र के चक्कर से कभी आजाद नहीं हो पायेगे। हीरा पहनो, भाग्य चमकेगा...मोती पहनो, मन शांत रहेगा...जाने क्या - क्या पहना और करना पड़ता है अपने को कामियाब बनाने के लिए।
मनुष्य अपनी गलतियों से सीखता है। जानवर भी अपनी गलतियों से सीखते हैं। लेकिन दोनों में फर्क है। जानवर अपनी गलती नहीं दुहराते, मनुष्य दुहराते हैं। जानवर आज में जीता है और हम कल में जीते हैं। हम या तो बीत चुके कल में जीते हैं या फिर आने वाले कल में जीते हैं। एक बात तो पक्की होती है किहम किसी भी हाल में आज में नहीं जीते।

28 जुलाई, 2010

पर - कटी

मैं उड़ती हुई चिड़िया थी,
मुझे कैद किया गया।
कैद के अन्दर कोशिश कि...
और पंखो के संघर्ष की आवाज से तंग हो,
काट किये मेरे पर।
अब मैं सिर्फ आसमां को देखती हूँ,
नीले रंग के इस अनोखे जहाँ को तकती हूँ।
सब से ऊँचा उड़ना चाहती थी, औरों से आगे निकलना चाहती थी
छोटे से पंखो को फैला कर विशाल आसमां ढँक लेना चाहती थी...
अब बेबस हूँ क्यूंकि...मैं पर-कटी चिड़िया हूँ।

अगर देखनी हो मेरी उड़ान...

अगर देखनी हो मेरी उड़ान,
तो आसमां को और ऊँचा कर दो
जो पंख मैं फैलाऊ तो इस जहाँ को और बड़ा कर दो।
अपनी परछाई कि साथी हूँ, अपनी ही दुनिया में जीती हूँ
कौन हूँ मैं, क्या हूँ मैं
मैं तुम्हे क्यों बताऊ
जो तुम देखना चाहो वजूद मेरा
पहले दिल अपना साफ़ कर के देख लो
अगर देखनी हो मेरी उड़ान
तो आसमां को और थोडा ऊँचा कर दो।