03 अक्तूबर, 2015

पुरानी जिंदिगी में कुछ नया करने की कोशिश

क्यों विध्वंस जरुरी है?खोने का गम मिलने की ख़ुशी की कीमत क्यों है? आखिर क्यों एक सांस को अंदर लेने के लिए दूसरी सांस को छोड़ना पड़ता है और इस मामूली सी क्रिया को ही जिंदा रहना कहा जाता है? सवाल कई है और जवाब भी है। लेकिन ये मन है की सिर्फ "क्यों" करता जाता है। उसे "क्यों है" से कोई खास लगाव नहीं है। शायद ऐसा करने से बैचेनी कम होती है।मन को तसल्ली होती है।कभी कभी ज़ोर से अकेले चिल्लाने से भी मन हल्का हो जाता है। बंद बाथरूम में शॉवर के निचे खड़े होने से भी आत्मा हल्की हो जाती है। रोज़ ख़त्म होती जिंदिगी में यह सब करना जरुर है। इसे हिम्मत मिलती है ज़िंदा रहने की।

दूरियाँ.....


हम दोनों के बीच की दूरियाँ सिर्फ कुछ कदमो की थी।
लेकिन ये कुछ कदम हम उम्र भर तय नही कर पाये।
प्यार ना तुम्हारा कम था ना मेरी वफ़ा में कोई कमी थी।
फिर भी ना जाने क्यों हम एक हो कर भी एक दूसरे से अलग ही रहे।
रेल की पटरियों की तरह साथ रहे और मिल कर भी ना मिले। 
आज सोचती हूँ कि उस वक़्त ऐसा क्या हुआ जो तुमने पलट कर भी नही देखा, 
तुमने फिर कभी मेरी सुध नही ली।
आखिर एक लम्हे में मैंने ऐसा क्या कर दिया जो हम जिंदिगी भर के लिए बेगानें होगये।
        लोगो से सुनती हूँ कि ऊपरवाला जो करता है अच्छे के लिए ही करता है।
ही मान कर मैंने अपनी जिंदिगी की गाडी आगे ले ली।
 तुम किस रह गए मुझे इसकी ख़बर नही लेकिन इतना जरूर जानती हूँ कि तुम्हारी जिंदिगी से मैं हमेशा के लिए जा चुकी हूँ।अजीब बात है, तुम किस बात पर खफ़ा हुए मुझे वह बात पता भी नही और उम्रभर की दूरियां बना दी तुमने।

जंग जरी है...।

आज खुद से खुद की जंग है।
परिवारिक रिश्तों को सँभालते हुए खुद को भी सँभालने की कोशिश जरी है।
किसी की बेटी हूँ, बीवी हूँ, माँ हूँ प्यारे से बेटे की, फिर भी लगता है कुछ नही हूँ। 
"कोई नही" से "कुछ है" तक का सफ़र जरी है। 
मेरी खुद से जंग जरी है।