16 फ़रवरी, 2019

विध्वंस जरुरी है...नया सृजन के लिए

ये कौन लोग है, जो इतनी नफरत लिए जीते है?  कहाँ से आती है इतनी हैवानियत? कौन सी धरती का अनाज खाते  है ये लोग? वह कौन सी हवा हैं  जहाँ ये लोग सांस लेते है? जो पुलवामा में हुआ वह किसी भी तरीके से इंसानी काम नहीं लगता।
जो शहीद हुए है अगर वह सरहद पर शहीद होते तो बात कुछ और होती।  प्राण निकलते शरीर से और आत्मा शांत होती। उनके घर वाले और देशवासी को इत्मीनान होता की उनके बच्चे ने जान गवाई जरूर है पर, लड़ते हुए। सुकून मिलता हम सबकी आत्मा को कि मौत की आँखों में देख कर उन्होंने अलविदा कहा।लेकिन, इस तरीके से मारना कायरता की हद को भी शर्मिदा करती है।पता है उस कायर को भी, शरहद पर  जीतने की औकात नहीं है उसकी। शायद इसलिए वह ऐसी घटिया हरकत कर हर बार अपनी 'जात'  दिखता है।  
मैंने तो बस दो तरह के जात को जाना है; एक प्यार की जात और नफरत की जात। इस दो के इतर और किसी धर्म/जात  को नहीं जानती। ये ठहरा हुआ वक़्त कुछ कहता है...शांति पसंद है हमारा वतन परन्तु, हमारी इंसानियत को हमारी कमजोरी समझ बैठा है वह। मुर्ख के सामने चुप होना अक्लमंदी है और उदण्ड को दण्ड देना  समझदारी है। बुद्दिजीवी लोगो का कहना है- युद्ध विध्वंस  लाता है। अब ये विध्वंस जरुरी है ताकि एक नया सृजन हो।  
आज वक़्त है कवि दुष्यंत  को याद करने का-
हो गयी है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, 
इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए। 

आज यह दिवार, पर्दों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।  

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, 
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी  चाहिए। 

मेरे सीने  में नहीं तो तेरे सीने  में सही,
हो कहीं भी आज, लेकिन आग जलनी  चाहिए।
  

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