27 मई, 2019

अभी सीख रही हूँ....

                                                                अभी सीख रही हूँ.... 
हाँ , मैं अपने बेटे श्रेष्ठ से आजकल रोज कुछ न कुछ नया सीख रही हूँ। जब-जब उसको गौर से देखती हूँ,तो यह विश्वास पक्का हो जाता है की भगवान है।  श्रेष्ठ आठ महीने का है और वह घुटनों के बल चलता है। अपनी हाइट की चीजों को पकड़ कर खड़ा होने की कोशिश करता है। इस कोशिश में वह कई बार गिरता है फिर भी अपनी कोशिश जारी रखता है। चोट लगती है, रोता भी है, परन्तु इस सब से उसका हौसला काम नहीं होता। वह तब तक नहीं रुकता जब तक वह खड़ा नहीं हो जाता।  अभी उसने एक हाथ से कुर्सी को पकड़ा है और दूसरे हाथ से मुझे इशारा कर रहा है,मानो  बोल रहा हो -"देखो मम्मा , मैं खड़ा हो गया " .  इस उम्र में मैं अपने बेटे से "कोशिश करना" सिख रही हूँ।
                                              मैंने कई और भी बाते सीखी है. सबसे महत्वपूर्ण बात , " अपने दिल की सुना " . आजकल वह हर चीज को मुहँ में लेता है।  अगर उसे उसका स्वाद अच्छा लगा तो खाता है नहीं तो छोड़ देता है।  जूता -चप्पल , खिलौना ,कंघी ...जो कुछ भी उसके हाथ में आये वह सीधा उसके मुहं में जाती है। श्रेष्ठ को इस बात से को फ़र्क नहीं पड़ता की वह गन्दा है या इस चीज को मुहं में नहीं लेते।  वह तो बस अपने दिल की करता जाता है। अपनी इस दिल की बात सुने के कारण कई बार वह बीमार पड़ा है. मेरे से थप्पड़ भी खायी है. फिर भी वह नया स्वाद चखने से बाज नहीं आता।  इस उम्र मे मैं यह सिख रही हूँ की सारे  काम दुनिया के लिए नहीं होते। कुछ काम दिल की ख़ुशी और मन के सकून  के लिए भी होते है।
                             माँ बनने के बाद जो एक बहुत बड़ी बात मैं ने अपने बेटे से  सीखी  ,वह है ," छोटी-छोटी बातों में ख़ुशी ढूंढ लेना" । सच में, जब से ये सीखा है मानो जिंदिगी नयी सी हो गयी है। बॉटल का ढक्क्न, चावल का दाना ,ज़मीन पर सुख चुके दाल का पानी ... इन सब को छू कर ही श्रेष्ठ ऐसे मुस्कुराता है मानो उसे दुनिया की कोई कीमती वास्तु मिल गयी हो। जो सामान मुझे कचड़ा लगती है वह श्रेष्ठ के लिए किसी खजाने से कम नहीं होता।वह बेकार सी पड़ी चीजों में अपनी ख़ुशी ढूढ़ लेता है। उसको मुश्कुराने के लिए कोई बड़ी वजह का इंतिजार नहीं रहता. वह छोटी-छोटी चीजों को ही छू कर, महसूस कर के ही खुश हो जाता है। आजकल मैं भी सिख रही हूँ छोटी -छोटी बातों पर जश्न बनाना. अब स्पेशल का इंतिजार नहीं रहता। जो है,जितना है,उसे ही स्पेसेल मान ख़ुशी बना लेती  हूँ।
                      आज उसको सुलाने के बाद मन में सोचती हूँ की , अपने बेटे के साथ मैं दुबारा बड़ी हो रही हूँ। पहले तो सिर्फ शरीर बड़ा हुआ था, अब आत्मा का विस्तार कर रही हूँ। यह बात तो आप भी मानते होंगे कि बढ़ती उम्र के साथ दिल खाली करना आसान नहीं होता  है। बर्थडे केक पर मोमबत्ती बढ़ती जाती है और साथ ही हमारा तर्ज़ुर्बा भी जो हमें हर बार दिल की सुनने नहीं देता।  अंदर-अंदर बहुत कुछ पकता-जलता है। पर, सब के सामने उसे परोसे ये मुनासिब नहीं है। निभाने होते है हमे कायदे-समाज के बने नियम। हमारे अंदर का इंसान भले ही सिसक-सिसक कर मर जाये; पर, हमारा समाज जिन्दा रहना चाहिए। क्यों??
             पता है, हमारे-आपके अंदर और बाहर दो अलग-अलग दुनिया बसती है। अंदर की दुनिया में  हम-आप चैंपियन है और बाहर की दुनिया में  मीडियोकर-समान्य नागरिक है। आखिर क्यों हम-आप एक सामान्य नागरिक बन कर जिए ? जब काबिलियत है अव्वल बनने की तो क्यों हम उस दौड़ में दौड़े जो हमारी नहीं है-हमारे लिए नहीं है। जानते हैं  हम की अपनी दौड़ में दौड़ेगे तो चैंपियन से कम नहीं होगे तो क्यों नहीं सुनते है हम अपने दिल की बात? क्यों???
                      बचपन से ही  हम अपनी कहानी के हीरो होते है। पर, जिंदिगी की रेस में जीरो । हमे नहीं समझ में आती ये दुनियादारी-ये रिश्ते-यारी। नहीं आता मौके का फायदा उठाना, लोगो को इस्तेमाल करना। अगर कुछ आता है तो अपनी दिल की सुनना -दिल की करना। और हमें यह नहीं करने दिया जाता। रोटी-कपड़ा -मकान की चाहत में हम कभी वह नहीं बन पाते जो हम बचपन में बनाना चाहते थे। साली जिंदिगी ने एक चीज सिखाई की "हमेशा दिल की सुनो, वह कभी  गलत नहीं होता ", और बेवफा जिंदिगी यही नहीं करने देती। बाकी सब की सुनती है- माँ-बाप की, भाई की, दूर के फूफा जी की, दो मकान छोड़ कर जो शर्मा जी रहते है, उसकी भी सुनती है -बस अपने दिल की नहीं सुने देती।  क्यों???
                                क्योकि ये डरती है गलत होने से। क्योकि इसे डर लगता है अपने को सही साबित करने में। वाह रे!जीवन। तुझे जीना भी सीखा है मर-मर के। कभी जीता नहीं तुझे, सिर्फ हारने के डर से। लेकिन ऐसा कब तक चलेगा? कब तक अनसुनी कर पाएंगे खुद की आवाज़ ? एक दिन तो कोई घंटा ऐसा बजेगा जो कानों के परदे पर टकराएगा ; गूजें की आवाज दिल के हर कोने में; फिर शायद कुछ बाहर निकल कर आएगा।  और तब अंदर-बाहर की दुनिया का अंतर मिट जायगा।  रेस भी होगी अपनी और अपना नंबर भी अव्वल आएगा।
 पर , ये तब होगा न  जब हम अपनी दिल की सुनेगे.... कुछ नया कारने की हिम्मत करेंगे।  बच्चे को हम बहुत कुछ सिखाते है , और खुद कितना कुछ उनसे सीख  सकते है।  शायद इसलिए "child is  a father of man" कहा गया है।
                 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें