03 अक्तूबर, 2015

पुरानी जिंदिगी में कुछ नया करने की कोशिश

क्यों विध्वंस जरुरी है?खोने का गम मिलने की ख़ुशी की कीमत क्यों है? आखिर क्यों एक सांस को अंदर लेने के लिए दूसरी सांस को छोड़ना पड़ता है और इस मामूली सी क्रिया को ही जिंदा रहना कहा जाता है? सवाल कई है और जवाब भी है। लेकिन ये मन है की सिर्फ "क्यों" करता जाता है। उसे "क्यों है" से कोई खास लगाव नहीं है। शायद ऐसा करने से बैचेनी कम होती है।मन को तसल्ली होती है।कभी कभी ज़ोर से अकेले चिल्लाने से भी मन हल्का हो जाता है। बंद बाथरूम में शॉवर के निचे खड़े होने से भी आत्मा हल्की हो जाती है। रोज़ ख़त्म होती जिंदिगी में यह सब करना जरुर है। इसे हिम्मत मिलती है ज़िंदा रहने की।

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