20 मार्च, 2009

आज के युवा "मैं" के अहम् से ऊपर उठाकर सोचते है। ६० साल के युवा भारत की ये विशेषता है। इस गला काट कम्पीटीशन के युग में जहा एक दोस्त ही दूसरे दोस्त का कम्पीटीटर है वही, इस भीड़ में कुछ युवा आपको ऐसे भी मिलिगे, जिनका मजहब ही एक दूसरे की मदद करना है। साठ वर्ष के आजाद इस मुल्क के युवा वर्ग को आगे बढ़ना आता है । ये एक दूसरे के कन्धो पर रख कर आगे नही बढ़ते, बल्कि एक दूसरे का हाथ पकड़ कर अपनी मंजिल को पाते है। २१वी सदी का यह फलसफा है-जियो और जीने दो। पिछली दो पीढियों की तुलना में हम भावनाओ और मुद्दों को लेकर कट्टर नही है। बल्कि जुनूनी है और हमारे जुनून को सही दिशा चाहिए। हम बात बात पर १९४७, १९६१-६२ और १९९९ को याद नही करते। हमने पापियों से नही बल्कि उनके पापो से नफरत करना सिखा है। हम युवा वर्ग को इससे कोई फर्क नही पड़ता की हमारे दोस्त ओबीसी है, सिख है, या मुस्लिम। हम इंसान को नही इंसानियत को पहचानते है। आज के नौजवानो को इसके अलावा कुछ और जानने की दरकार नही है। गाँधी, पटेल और नेहरू के भी यही विचार थे। सन १९४७ के समय कुछ ही लोग दिल से धर्म निरपेक्षता के समर्थक होगे। पर, सन २००८ में लगभग हर युवा खुल कर धर्म निरपेक्षता को समर्थन देता है। देखा जाए तो जिस भारत का सपना बापू ने देखा था, उस भारत की नींव इन बीते साठ में वर्षो में चुकी है। और हम समस्त युवा वर्ग को यह चुनौती स्वीकारनी होगी कि इसी नींव पर हमें डेवलप्ड इंडिया की वह शानदार ईमारत तेयार करनी है, जिसे कोई लादेन या सलेम नही गिरा सकता। आज के हर युवा में डीजे और गुरु छिपा है। जो देशभक्ति का दिखावा नही करता। पर,वह अन्दर से उतना ही देशभक्त है, जितना चंद्रेशेखर आजाद और महात्मा गाँधी थे।
पर,चुनाव के समय नेताओ के भाषण हमें शर्मशार का देते है। वरुण गाँधी से यह उम्मीद तो कभी न थी। जिनके पूर्वज हमेशा धर्म निरपेक्षता को समथर्न देते थे आज उन्ही के वंश ने सांप्रदायिक भाषण दिया। क्या चुनाव जितना इतना जरूरी होता है? अगर हां तो फिर बापू के नाम को अलग कर दो.

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