जिंदा रहेने के लिए आदमी का कुछ-न-कुछ करते रहेना जरुरी है. इस सच को मैं मानती हूँ पर जब कोई खुद को जिंदा ही न समझे तो फिर?????? साँसों का चलना ही सिर्फ किसी के जीवित रहेने कि निशानी नहीं होती. बहुत पहेले मैन एक पौधा लगाया था. सोचा था वह समय के साथ बढेगा और घना होगा. लेकिन पानी और हवा की कमी के कारण वह पौधा समय से पहेले ही सुख गया. आज भी उस का एक पत्ता मेरी किताब के बीच में है. सुख चुके उस पत्ते को जब-जब देखती हूँ मुझे मेरी नाकामयाब कोशिश याद आती है. एसा लगता है मानो मुझ पर सारा बाग़ हँस रहा हो. अपनी हार से उबरना मुश्किल होता है. उस से भी ज्यादा कठिन होता है अपने पराजय के साथ जीना. पर जो यह काम कर गया वह आदमी कहा लता है. जिंदिगी कि रहा में कई उतर-चढ़ाव आते हैं . जो इनसे पार पता है वही तो जिंदा रहे का हक पता है. यही सोच कर फिर से मैन कोशिश की है एक और पौधे को लगाने की. देखते है इस बार कौन हँसता है!!!!!
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