कितना कुछ कहना चाहती थी मेरी जुबां,
होठ हिलते, पर लब्ज न निकलते
हर बार कुछ कह कर भी कुछ न कह पते.
जाने कैसी थी वो बेबसी, कैसा दौर था वह भी;
था बहुत कुछ कहने-सुनने को पर,नहीं था तो वक़्त... .
सदियों बाद मिलें है हम,फिर बारिस कि बूंदों के साथ.
कभी भीगे थे साथ में हम,उसी वर्षा कि बूंदों से आज भी मेरी आत्मा भीगी है
एक सोंधी सी खुशबू अब तक बसीं है;
आज फिर बारिस ने हमें एक साथ भिगोया है,
वह गुजरा हुआ पल लौटाया है... .
मन तो अभी भी गिला-गिला सा है उसकी कोमल भावनायों से,
पर, है अब बहुत कुछ बदला-बदला सा.
कहना था मुझे बहुत कुछ,सुनना था उससे बहुत कुछ
पर वही बेबसी आज भी है, सब कुछ होते हुए भी
बस वह वक़्त हमारे पास नहीं है.
बहुत से कोमल भावो को भरा हैँ आपने कविता मेँ। लाजबाव हैँ आपकी कविता। आभार! -: VISIT MY BLOG :- जिसको तुम अपना कहते हो..........कविता को पढ़कर अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए आप सादर आमंत्रित हैँ। आप इस लिँक पर क्लिक कर सकती हैँ।
जवाब देंहटाएंbahut bhaut shukriya.deri se shukariya kahne ke liye maaf kre.
हटाएंआप आपने ब्लोग पर काफी दिनोँ बाद उपस्थित हुई हैँ ना ? पुनः स्वागत हैँ आपका ।
जवाब देंहटाएंवाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा
जवाब देंहटाएंbahut bhaut shukriya.deri se shukariya kahne ke liye maaf kre.
हटाएंवाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंआप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
बधाई.
कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
bahut bhaut shukriya.deri se shukariya kahne ke liye maaf kre.
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