19 अक्तूबर, 2019

तपस्या....

श्रेष्ठ..... मैं कितनी कमजोर हूँ, इसका एहसास तुमने कराया है. तुम्हारी चोट, दर्द से इतनी घबराती हूँ कि सूखे पत्ते-सा हील जाती हूँ. कभी भीड़ से ना डरने वाली लड़की, माँ  बनते ही भीड़ से डरने लगती है. मेले में, रोड पर, तुम्हारी ऊँगली जोर से पकड़े रहती हूँ. और अगर एक पल को भी साथ छूटता है तो सांस थम सी जाती है. मेरा एक रूप डरी-हुई माँ का भी है, ये तस्वीर तुमने मुझे दिखाई है.
                श्रेष्ठ...... वही डरी-हुई माँ झूठी है इसका भी एहसास तुमने ही कराया है. पता है कि चोट है, दर्द में हो फिर भी कहती हूँ, "अरे !ये तो कुछ भी नहीं है... जाओ  खेलो ". और तुम खेलने लगते हो .  बुखार-सी जलती आँखे जब तुम मींचते हो तब भी झूठ बोलती हूँ, " ऐसे eyes मींचोगे तो इंजेक्शन लगाना पड़ेगा".  और तुम अपना हाथ तुरंत रोक देते हो.
                        श्रेष्ठ.... तुम्हीं हो, जिसने ये यकीन दिलाया कि इन कमजोर रूपों  के बाद भी मैं वह माँ हूँ जो आधी रात में भी तुम्हें अकेले हॉस्पिटल में एडमिट करा सकती हूँ , तुम्हारे घाव को हसँते हुए और तुम्हें हसांते हुए साफ़ कर सकती हूँ . पता नहीं पर, तुम्हें दुःख में देख एक जुनून सवार हो जाता है कि बस, तुम्हें हँसाना है.  इसी जुनून कि खातिर कभी झूठी तो कभी मतलबी बन जाती हूँ.
                   आज-पता चलता है, माँ -बाप बनाना तपस्या है. बाप की मजूबरी होती है कि वह लाख चाह कर भी घर रह बच्चों कि मरहम-पट्टी नहीं कर सकता और माँ लाख चाह कर भी बच्चों को चोट लगने से, बीमार होने से बचा नहीं सकती.

उम्मीद करती हूँ  कि मेरी और सुमित की  तपस्या सफल हो. और श्रेष्ठ तुम यूँही खेलो-कूदो, अपना बचपन भरपूर जियो. हमें दोनों है.

ईश्वर आशीर्वाद देना  !!!

27 मई, 2019

अभी सीख रही हूँ....

                                                                अभी सीख रही हूँ.... 
हाँ , मैं अपने बेटे श्रेष्ठ से आजकल रोज कुछ न कुछ नया सीख रही हूँ। जब-जब उसको गौर से देखती हूँ,तो यह विश्वास पक्का हो जाता है की भगवान है।  श्रेष्ठ आठ महीने का है और वह घुटनों के बल चलता है। अपनी हाइट की चीजों को पकड़ कर खड़ा होने की कोशिश करता है। इस कोशिश में वह कई बार गिरता है फिर भी अपनी कोशिश जारी रखता है। चोट लगती है, रोता भी है, परन्तु इस सब से उसका हौसला काम नहीं होता। वह तब तक नहीं रुकता जब तक वह खड़ा नहीं हो जाता।  अभी उसने एक हाथ से कुर्सी को पकड़ा है और दूसरे हाथ से मुझे इशारा कर रहा है,मानो  बोल रहा हो -"देखो मम्मा , मैं खड़ा हो गया " .  इस उम्र में मैं अपने बेटे से "कोशिश करना" सिख रही हूँ।
                                              मैंने कई और भी बाते सीखी है. सबसे महत्वपूर्ण बात , " अपने दिल की सुना " . आजकल वह हर चीज को मुहँ में लेता है।  अगर उसे उसका स्वाद अच्छा लगा तो खाता है नहीं तो छोड़ देता है।  जूता -चप्पल , खिलौना ,कंघी ...जो कुछ भी उसके हाथ में आये वह सीधा उसके मुहं में जाती है। श्रेष्ठ को इस बात से को फ़र्क नहीं पड़ता की वह गन्दा है या इस चीज को मुहं में नहीं लेते।  वह तो बस अपने दिल की करता जाता है। अपनी इस दिल की बात सुने के कारण कई बार वह बीमार पड़ा है. मेरे से थप्पड़ भी खायी है. फिर भी वह नया स्वाद चखने से बाज नहीं आता।  इस उम्र मे मैं यह सिख रही हूँ की सारे  काम दुनिया के लिए नहीं होते। कुछ काम दिल की ख़ुशी और मन के सकून  के लिए भी होते है।
                             माँ बनने के बाद जो एक बहुत बड़ी बात मैं ने अपने बेटे से  सीखी  ,वह है ," छोटी-छोटी बातों में ख़ुशी ढूंढ लेना" । सच में, जब से ये सीखा है मानो जिंदिगी नयी सी हो गयी है। बॉटल का ढक्क्न, चावल का दाना ,ज़मीन पर सुख चुके दाल का पानी ... इन सब को छू कर ही श्रेष्ठ ऐसे मुस्कुराता है मानो उसे दुनिया की कोई कीमती वास्तु मिल गयी हो। जो सामान मुझे कचड़ा लगती है वह श्रेष्ठ के लिए किसी खजाने से कम नहीं होता।वह बेकार सी पड़ी चीजों में अपनी ख़ुशी ढूढ़ लेता है। उसको मुश्कुराने के लिए कोई बड़ी वजह का इंतिजार नहीं रहता. वह छोटी-छोटी चीजों को ही छू कर, महसूस कर के ही खुश हो जाता है। आजकल मैं भी सिख रही हूँ छोटी -छोटी बातों पर जश्न बनाना. अब स्पेशल का इंतिजार नहीं रहता। जो है,जितना है,उसे ही स्पेसेल मान ख़ुशी बना लेती  हूँ।
                      आज उसको सुलाने के बाद मन में सोचती हूँ की , अपने बेटे के साथ मैं दुबारा बड़ी हो रही हूँ। पहले तो सिर्फ शरीर बड़ा हुआ था, अब आत्मा का विस्तार कर रही हूँ। यह बात तो आप भी मानते होंगे कि बढ़ती उम्र के साथ दिल खाली करना आसान नहीं होता  है। बर्थडे केक पर मोमबत्ती बढ़ती जाती है और साथ ही हमारा तर्ज़ुर्बा भी जो हमें हर बार दिल की सुनने नहीं देता।  अंदर-अंदर बहुत कुछ पकता-जलता है। पर, सब के सामने उसे परोसे ये मुनासिब नहीं है। निभाने होते है हमे कायदे-समाज के बने नियम। हमारे अंदर का इंसान भले ही सिसक-सिसक कर मर जाये; पर, हमारा समाज जिन्दा रहना चाहिए। क्यों??
             पता है, हमारे-आपके अंदर और बाहर दो अलग-अलग दुनिया बसती है। अंदर की दुनिया में  हम-आप चैंपियन है और बाहर की दुनिया में  मीडियोकर-समान्य नागरिक है। आखिर क्यों हम-आप एक सामान्य नागरिक बन कर जिए ? जब काबिलियत है अव्वल बनने की तो क्यों हम उस दौड़ में दौड़े जो हमारी नहीं है-हमारे लिए नहीं है। जानते हैं  हम की अपनी दौड़ में दौड़ेगे तो चैंपियन से कम नहीं होगे तो क्यों नहीं सुनते है हम अपने दिल की बात? क्यों???
                      बचपन से ही  हम अपनी कहानी के हीरो होते है। पर, जिंदिगी की रेस में जीरो । हमे नहीं समझ में आती ये दुनियादारी-ये रिश्ते-यारी। नहीं आता मौके का फायदा उठाना, लोगो को इस्तेमाल करना। अगर कुछ आता है तो अपनी दिल की सुनना -दिल की करना। और हमें यह नहीं करने दिया जाता। रोटी-कपड़ा -मकान की चाहत में हम कभी वह नहीं बन पाते जो हम बचपन में बनाना चाहते थे। साली जिंदिगी ने एक चीज सिखाई की "हमेशा दिल की सुनो, वह कभी  गलत नहीं होता ", और बेवफा जिंदिगी यही नहीं करने देती। बाकी सब की सुनती है- माँ-बाप की, भाई की, दूर के फूफा जी की, दो मकान छोड़ कर जो शर्मा जी रहते है, उसकी भी सुनती है -बस अपने दिल की नहीं सुने देती।  क्यों???
                                क्योकि ये डरती है गलत होने से। क्योकि इसे डर लगता है अपने को सही साबित करने में। वाह रे!जीवन। तुझे जीना भी सीखा है मर-मर के। कभी जीता नहीं तुझे, सिर्फ हारने के डर से। लेकिन ऐसा कब तक चलेगा? कब तक अनसुनी कर पाएंगे खुद की आवाज़ ? एक दिन तो कोई घंटा ऐसा बजेगा जो कानों के परदे पर टकराएगा ; गूजें की आवाज दिल के हर कोने में; फिर शायद कुछ बाहर निकल कर आएगा।  और तब अंदर-बाहर की दुनिया का अंतर मिट जायगा।  रेस भी होगी अपनी और अपना नंबर भी अव्वल आएगा।
 पर , ये तब होगा न  जब हम अपनी दिल की सुनेगे.... कुछ नया कारने की हिम्मत करेंगे।  बच्चे को हम बहुत कुछ सिखाते है , और खुद कितना कुछ उनसे सीख  सकते है।  शायद इसलिए "child is  a father of man" कहा गया है।
                 

अपने-अपने मायने

                                        

एक कप चाय से शुरू होती उसकी सुबह, रात को एक गिलास दूध पर ख़त्म हो जाती है। चारु सोचती है की ऊपर वाले ने पेट तो सबको दिया है पर, किचन सिर्फ औरतों के लिए बनाया है। खैर, चारु को अपनी ज़िंदगी से कोई शिकवा-शिकायत नहीं है। वह खुश है। घड़ी के काँटों के बीच वह खुद के लिए वक़्त निकाल लेती है। ललिता,रूबी और रेने उसकी सहेलियाँ  हैं। महीने में कोई एक दिन उनका आपस में मिलना, गप्पें  मारना या मूवी  देखने का कार्यक्रम बन जाता है। मॉडर्न सोसाइटी में इसे किटी -पार्टी करना कहते हैं। और आज चारु का नंबर है। उसने अपने सभी सहेलियों को घर पर ही बुलाया है। अहमदाबाद में अप्रैल की धूप ने जून महीने की तपिश याद दिला दी है। मौसम का खौलता मिज़ाज देख कर चारु ने घर पर ही खाने- पीने का कार्यक्रम रखा है। 
                                                पांच-छ: लोगो का खाना बनाने के लिए चारु ने सोसाइटी की ही कुक, लम्हा को रख लिया है।  ३०-३२ वर्ष की लम्हा अपने काम में माहिर है। ८-१० लोगो की छोटी-मोटी पार्टी में लम्हा खाना बनाने में निपुण है। चारु की सोसाइटी में लम्हा की गिनती अच्छी कुक में होती है। 
                                                        ९ बजे मनीष ऑफिस के लिए निकल ही रहे थे की लम्हा आगयी। उसने बोला -"दीदी आप मेनु बता दो तो मैं तैयारी शुरू कर दूँ।" 
चारु-"बहुत कुछ नहीं बनाना। चार बजे मेरी सहेलियाँ आजायेगी। छोले -भटूरे बना दो। रायता और सूप बना देना। बाकि अगर टाइम मिले तो जो आसानी से बने एक आइटम और कर देना। वैसे कोल्ड-ड्रिंक्स और आइस-क्रीम है।"
लम्हा- "जी दीदी" . 
                               लम्हा को किचन का काम समझा कर चारु घर का बाकि काम निबटने लगी। बीच-बीच में वह जा कर लम्हा की भी मदद कर देती थी। चार बजते ही उसकी मित्र मण्डली उसके घर आ पहुंची। सब के आते ही लम्हा तीन रंग से भरे कोल्ड-ड्रिंक्स की ट्रे लिए हाजिर होगयी। सबके हाथ में गिलास था और पेट में बहुत सारी बातें। विद्वानों ने कहा है कि औरतों की सब मर्ज़ की एक दवा है- गप्पें लड़ाना। 
चारु ने बोला -" दो दिन बाद अक्ष्य तृतीया है।  क्या ले रही हो तुम लोग?" 
ललिता ने सबसे पहले बोला-"यार, सोने का भाव हर साल बढ़ता है। इस बार तो मैंने सोने की गिन्नी लेने का सोचा है। इन्वेस्टमेंट के लिए।"
रूबी-"गिन्नी? मैं तो गहने ही लूँगी। वह आजकल फैशन में है न बड़ी-बड़ी अंगूठी जैसा आलिया भट्ट ने कलंक फिल्म में पहना है। वैसी वाली।"
रेने-" हमारे ग्रुप में अगर कोई फ़िल्मी है तो वह है हमारी रूबी मैडम और अगर किसी का बिज़नेस माइंड  है तो वह है ललिता का। मैंने भी गहने लेने का ही सोचा है। इस बार हीरे की नाक की लौंग लूँ? कैसा आईडिया है? सी.जी रोड चले क्या?"
चारु-"तुम लोग चले जाना। मैंने कल रात जब मनीष से अक्ष्य तृतीया पर कुछ खरीदने की बात की तो भड़क उठे। बोलते हैं कि-तुम औरतों को तो गहने खरीदने का बहाना चाहिए। एक तो मार्च क्लोजिंग का टेंशन फिर इनकम-टैक्स का चक्कर। ऊपर से इन तीज-त्यौहारों का आना बंद नहीं होता।" चारु ने ऐसे मुँह बना-बना कर बोला की सब की हँसी निकल गई।  रेने अपनी हँसी रोकते हुए बोली-"यार मनीष भाई न एक दम कॉमेडी है।"  लम्हा इन सब की बातें सुन रही थी। हाथ उसके मशीन से चल रहे थे और दिमाग में उसकी बेटी की तस्वीर बन-मिट रही थी। टेबल पर खाना परोसने के बाद उसने चारु को पुकारा-"दीदी, एक बार आना।" चारु को अपनी व्यवस्था दिखाने के बाद उसकी प्रतिक्रिया जाने के लिए वह उसका चेहरा ध्यान से देख रही थी। चारु लम्हा के काम से बहुत खुश हुई। टेबल की सजावट देख सब ने लम्हा की तारीफ की। 
रूबी-"सच में लम्हा,तुम खाना बहुत स्वादिष्ट  बनाती हो। खाते ही मजा आ जाता है।" भटुरे का एक बड़ा निवाला मुँह में डालते हुए ललिता ने बोला -"लम्हा के हाथ में स्वाद है।"
सभी आनंद ले कर उसके बनाये खाने का लुफ़्त उठाने लगे। खाने की मेज पर एक बार फिर से शॉपिंग वाला टॉपिक आगया। चारु ने अचानक लम्हा से पूछ लिया-" लम्हा, तुम अक्ष्य तृतीया जानती हो? कुछ लेती हो उस दिन?"
                                     रेने को उम्मीद नहीं थी कि कोई लम्हा से,एक खाना बनाने वाली से गहने खरीदने के बारे में पूछेगा। पर, उसे चारु का व्यवहार पता है। वह हर किसी को बराबर का दर्जा देती है। हमारे घर में कामवाली के खाने-पीने का अगल बर्तन होता है। पर, चारु इन भेदभाव के विरुद्ध  है। चारु एक ही जात को नीच मानती है;जो चोरी का खाते  है।  बाकि सभी जाती उसके लिए बराबर है।  
लम्हा भी चारु द्वारा पूछे सवाल के लिए तैयार नहीं थी। उसकी गिलास में ऑरेंज जूस डालते हुए बोली-" अब चारु दीदी, आपसे क्या छिपाना।  हम रोज कमाने-खाने वाले लोग है। मैं इतनी मेहनत करती हूँ ताकि अपनी बेटी श्रेया को पढ़ा-लिखा कर कुछ काबिल बना सकूँ।" जूस का जग टेबल पर रखा कर वह अपना हाथ आँचल से  पोछते हुए आगे बोली-"दीदी अक्ष्य तृतीया के दिन या तो लोग सोना खरीदते है या किसी व्यपार का शुभारंभ करते है। क्योंकि अक्ष्य का अर्थ है जिसका कभी क्षय न हो, मतलब जो कभी खतम न हो। श्रेया की पढ़ाई आगे भी चालू रखने के लिए मैंने पिछले साल आज के दिन ही बैंक खाता खुलवाया था जिसमे मैं और मेरे पति हर महीने पैसे जमा करते हैं। बेटी की पढ़ाई पैसों के कारण नहीं रुकनी चाहिए। रही कुछ खरीदने की बात तो बेटी की पसंद की कोई किताब या उसकी जरूरत की कोई चीज़ खरीद लेती हूँ। अब अपनी-अपनी मान्यता है दीदी।" 
             अपनी बात ख़त्म कर लम्हा ने भोलेपन से उन चारों सहेलियों को देखा। फिर हरबड़ाहट में बोला-"अरे! देखो।  बात करने के चक्कर में राइता लाना भूल ही गयी। "
लम्हा की बातें वह चारों आँखें फाड़े और मुँह खोले सुन रही थी। जब वह राइता ले वापस आयी तो चारु ने उसका हाथ प्यार से पकड़ा और बोला-"असल में अक्ष्य तृतीया का पर्व तो तुम बनती हो। देखना, आज के दिन जिस तरह श्री कृष्ण ने सुदामा की कुटिया को महल में बदल दिया था, वैसे ही तुम्हारी बेटी तुम्हारे दिन बदल देगी।"
        लम्हा की आँखों में अपनी बेटी श्रेया का सुनहरा भविष्य चमक उठा। उस चमक के आगे हीरे की लौंग की भी चमक फीकी लगी।
                                                                                                                                                                                                                                                                           








16 फ़रवरी, 2019

विध्वंस जरुरी है...नया सृजन के लिए

ये कौन लोग है, जो इतनी नफरत लिए जीते है?  कहाँ से आती है इतनी हैवानियत? कौन सी धरती का अनाज खाते  है ये लोग? वह कौन सी हवा हैं  जहाँ ये लोग सांस लेते है? जो पुलवामा में हुआ वह किसी भी तरीके से इंसानी काम नहीं लगता।
जो शहीद हुए है अगर वह सरहद पर शहीद होते तो बात कुछ और होती।  प्राण निकलते शरीर से और आत्मा शांत होती। उनके घर वाले और देशवासी को इत्मीनान होता की उनके बच्चे ने जान गवाई जरूर है पर, लड़ते हुए। सुकून मिलता हम सबकी आत्मा को कि मौत की आँखों में देख कर उन्होंने अलविदा कहा।लेकिन, इस तरीके से मारना कायरता की हद को भी शर्मिदा करती है।पता है उस कायर को भी, शरहद पर  जीतने की औकात नहीं है उसकी। शायद इसलिए वह ऐसी घटिया हरकत कर हर बार अपनी 'जात'  दिखता है।  
मैंने तो बस दो तरह के जात को जाना है; एक प्यार की जात और नफरत की जात। इस दो के इतर और किसी धर्म/जात  को नहीं जानती। ये ठहरा हुआ वक़्त कुछ कहता है...शांति पसंद है हमारा वतन परन्तु, हमारी इंसानियत को हमारी कमजोरी समझ बैठा है वह। मुर्ख के सामने चुप होना अक्लमंदी है और उदण्ड को दण्ड देना  समझदारी है। बुद्दिजीवी लोगो का कहना है- युद्ध विध्वंस  लाता है। अब ये विध्वंस जरुरी है ताकि एक नया सृजन हो।  
आज वक़्त है कवि दुष्यंत  को याद करने का-
हो गयी है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, 
इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए। 

आज यह दिवार, पर्दों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।  

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, 
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी  चाहिए। 

मेरे सीने  में नहीं तो तेरे सीने  में सही,
हो कहीं भी आज, लेकिन आग जलनी  चाहिए।
  

21 अक्तूबर, 2018

चिठ्ठी आयी है...

                                                                चिठ्ठी आयी है...

लम्हा ट्रैन में बैठ चुकी थी। उसने बहुत जोर से अपनी माँ, अंजलि का हाथ पकड़ रखा था। २१ साल की लम्हा ph.d करने मुंबई जा रही थी। ट्रैन की सिटी बजी और न चाहते हुए भी अंजलि ने अपना हाथ लम्हा से छुड़ा लिया। अंजलि ट्रैन से उतर गयी। खिड़की से सट कर बैठी लम्हा की आंसू  रुक नहीं रहे थे। धीरे-धीरे ट्रैन आगे बढ़ती  गयी और सब पीछे छूटता चला गया। उसका शहर, उसके दोस्त,उसकी माँ, सब कुछ स्टेशन की तरह वहीं रह गया और वह रेल की पटरी सी आगे बढ़ती चली गयी। कितनी अजीब बात है की जिस सपने को वह पूरा करने जा रही है उसे उसकी कीमत आज पता  चली  है। लम्हा की सिसकी धीरे-धीर कम होने लगी। ट्रैन की खिड़की के आगे का मंजर तेजी से बदल रहा था और उसकी सोच भी विस्तार ले रही थी।
                      अचानक लम्हा को "पोलो" खाने का मन हुआ। हमेशा से ही उसकी पसंदीदा टॉफी पोलो रही  है। परीक्षा के वक़्त, उसका हाथ और दिमाग दोनों तेज चले इसलिए वह अपने दो पेन के साथ पोलो को एग्जाम-हॉल में जरूर ले जाती थी। उसके दोस्त उसे चिढ़ाते थे कि लम्हा के अच्छे मार्क्स का राज उसका लकी चॉकलेट पोलो है। कॉलेज की याद उसे कभी उदास नहीं करती थी। बल्कि उसमें ऊर्जा की सुई भर देती थी। अपनों के हाथ  छोड़ने का गम तो उसे भी था पर, पोलो की ठंडक और कॉलेज की याद ने उसे उसका सपना, ph.d करने का सपना वापस याद दिला दिया था। कुछ पढ़ने के लिए उसने अपना बैग-पैक खोला। बैग के अंदर से उसने मैगज़ीन निकली। उसको पढ़ने के लिए खोला तो एक सफ़ेद रंग का लिफ़ाफ़ा किताब से सरसराता  हुआ उसकी गोदी में आ गिरा। वह उस लिफ़ाफ़े को देख कर चौंक गयी क्यूँकि उस पर "मम्मी" लिखा था। उसने उसे खोला तो अंजलि का पत्र था, उसके नाम। लम्हा को हसीं आगयी की आजकल पत्र लिखता कौन है। उसने सोचा की माँ उसको अपने हाथ से भी तो दे सकती थी। उसे गाँधी जी वाली वह घटना याद आयी जब उन्होंने अपनी गलती की माफ़ी मांगने के लिए अपने पिता जी को पत्र लिखा था। पता नहीं क्यों पर, लम्हा को बहुत रोमांच महसूस हो रहा था। उसने झट से सलीके से मोड़े हुए काग़ज़ को खोला और पढ़ना शुरू  किया...
                                          "मेरी बहादुर बेटी,पत्र पा कर तुम आश्चर्य में हो। क्या करुँ, जो बात मुझे तुमसे आमने-सामने बैठ कर करनी चाहिए वह बातें मुझे लिखनी पढ़ रही है। इसका कारण है मेरा संचोक। आखिर हूँ तो औरत ही। हाँ, मैं-तुम औरत है। तुम्हें लड़की से सीधा औरत बना दिया, मैंने आज अपनी लाडली को बड़ा जो कर दिया है।
             "लम्हा, अब तक की तुम्हारी जिंदिगी में मैं तुम्हारे साथ हर पल थी। आगे भी रहूँगी। पर, अब तुम बड़े शहर में अकेली अपने सपनों का पीछा करोगी। मुझे तुम पर गर्व है। लेकिन, एक बात हमेशा याद रखना, कल को चाहे जो हो अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए कोई भी कदम उठाने से पीछे मत हटना। लड़की हो, लोग किसी न किसी बहाने तुम्हे छूने का, सूंघने का प्रयास करेंगे। तुम विवेक और हिम्मत से काम लेना।  वह लड़की चाहिए निर्भया हो, लक्ष्मी हो, या तुम हो या मैं हूँ, याद रखना हम औरतों की इज्जत पाँच मीटर की साड़ी से कही ज्यादा है।  हमारी आबरू इतनी हलकी नहीं की राह चलता मनचला अगर  इसे छू  दे तो यह मैला हो जाये  और न ही इतनी भरी है कि  हमारी एक गलती से  पूरी खानदान की नाक ही कट जाये।
                               "बेटी, तुम जिस क्षेत्र में हो वहां कई प्रकार के लोग मिलेंगे। और सिर्फ तुम्हारा ही क्षेत्र क्यों हो। कोई भी जॉब या शहर में हर तरह के लोग मिलेंगे। साधू भी और शैतान भी। तुम देखना, अपनी छः इन्द्रियों को खुला रखना। और अगर, खुदा न करे कभी तुमसे इंसान पहचानने में भूल हो जाये तो अपनी इस एक गलती की सजा अपने आप को उम्रभर मत देना।
                                    "पता है, जब भी मैं कोई बलात्कार की घटना को पढ़ती हूँ तो मेरा मन-दिमाग उस शैतान को देखना चाहता है जिसने यह घिनौना पाप किया है।  लेकिन अफ़सोस, हर तरफ सिर्फ पीड़िता के ही चर्चे होते है। मैं एक औरत होने के साथ एक लड़की की माँ भी हूँ। इसलिए कहती हूँ कि लम्हा, तुम अपने आत्मविश्वास को कभी अपने कपड़ो की लम्बाई से मत नापना। तुम्हारा आत्मबल, तुम्हारे बालो की बनावट के गुलाम नहीं होने चाहिए। समाज की बेतुकी सजावट से कही ज्यादा महत्वपूर्ण है तुम्हारा आत्मसम्मान।  इसे कभी भी-किसी के लिए भी मत झुकाने देना।
                               "मेरा बच्चा , तुम्हे मौका मिला है उड़ने का। तुम्हारे पंख काटने को बहुत लोग है। पर, तुम उड़ोगी, मुझे विश्वास है। गलती करने से बचना। अगर गलती हो जाये तो उससे सिख लेना। नई शुरुआत  करना। पर, किसी भी परिस्थिति में खुद को लाचार, बेसहारा मत समझना। अंत में मैं बस इतना कहना चाहती हूँ कि तुम अपनी सोच को "समाज क्या सोचेगा" से कभी मत बदलना।
                                    खुश रहो।

                                                                                                               तुम्हरी मम्मी ।    

11 मई, 2018

तमाशा नहीं,मिसाल बनो

आज किताब की अलमारी साफ़ करते हुए एक पुरानी सी डायरी दिखी।  दिल की  धड़कन  इतनी तेज हो गयी की मैं उसकी आवाज़ साफ़ सुन सकती थी। दिमाग और दिल दोनों उस डायरी को खोलने से रोक रहे थे। पर, हाथों ने पीले पड़ चुके पन्ने को पलटना शुरू कर दिया और आँखों ने उसे पढ़ना शुरू कर दिया था।

5/5/93
गर्मी की छुट्टी में हम नानी के घर जा रहे है। खूब मस्ती करेंगे। बंगलोर से रांची का सफर तीन दिन का होता है। हम ने हटिया-यशवंतपुर में सेकंड क्लास का टिकट लिया है। 7 मई को हम नानी के घर पर होंगे। नानी के घर में जो बात मुझे सबसे अच्छी लगती है वह है आँगन और घर के पीछे वाला बगीचा।

26/6/93
नहीं, मुझे नहीं जाना चाहिए था यहाँ। ट्रेन में भी सामने बैठे अंकल बार-बार मेरी छाती को घूर रहे थे।  माँ-पापा दोनों ने ये बात नोटिस की पर, कोई कुछ नहीं बोला। और फिर उस दिन रात को खाने पर मामा जी के फ्रेंड विकास  मामा आये थे। खाने के बाद हम सब बैठ कर अंतराक्षी खेल रहे थे और बीच  में ही लाइट चली गयी। अचानक विकास मामा का हाथ मेरी जांघो पर आगया।  मैं डर गयी पर मुँह से आवाज़ नहीं निकल पायी।  लालटेन लेकर आ रही थी।मैं जल्दी से उठने लगी तो उन्हों ने मुझे "मेरी गुड़िया कहाँ जा रही है" कह कर अपनी गोद  में बैठा लिया और फिर.... नहीं मैं नहीं बाता सकती किसी को....मुझे यहाँ आना ही नहीं चाहिए था।                         मेरी आँखों से आंसू बहने लगे।  मैं आहिस्ता -आहिस्ता अपने वर्तमान को छोड़ अपने अतीत में जा रही थी. .मैंने कई पेज एक साथ पलट दिए।

5/9/94
शिक्षक -दिवस के मौके पर मैं और मेरी सहेलियों ने ग्रुप डांस किया था। लंहगा-चुनी में मैं बहुत सुन्दर दिख रही थी। राहुल मेरे पास आकर बोला-" यू आर लुकिंग वैरी ब्यूटीफुल"। मैं तो शर्मा ही गई थी।

14/2/95
मुझे पता था कि राहुल मुझे प्रोपोज़ करेगा। उसने स्कूल गेट पर ही मेरा रास्ता रोक दिया और फिर बिना वक़्त बर्बाद किये उसने जल्दी से बोल दिया- "लम्हा,आई  लव यू।"  मैंने कुछ नहीं बोला।  बस उसके साथ अपनी क्लास रूम की तरफ चल दी। हमें एक साथ आता देख अमित ने कहा- "भाभी आगयी..." और फिर सब हंसने लगे। मेरा जवाब जाने बिना ही क्लास ने कंफ़र्म कर दिया कि मैं राहुल की गर्लफ्रेंड  हूँ। मैं क्यों  उसी वक़्त उसे मना नहीं कर पाई ? शायद मैं बात बढ़ाना नहीं चाहती थी...पता नहीं।

16/3/95
परीक्षा शुरू होने वाली है। अब मुझे अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगाना है। मैंने अभी तक राहुल को कुछ नहीं बोला है और मुझे कुछ बोलना भी नहीं है। मेरे बोले बिना ही सब ने तय कर दिया है। पर, "आई  डोंट लव राहुल" ये बात पक्की है। खैर अगले साल 10वीं की परीक्षा है सो मेरे लिए तो "नो टाइम फॉर लव"।


1/5/95
10th क्लास का पहला दिन और आज सुबह ही मेरा पीरियड्स आ गया। क्लास मिस नहीं कर सकती थी इसलिए गयी और वही हुआ जिसका डर था। ब्लू स्कॉर्ट पर लाल दाग जो भूर रंग जैसा लग रहा था।  हे भगवन! कितनी शर्म आर ही थी मुझे। पता नहीं कैसे और कहाँ से अचानक राहुल मेरे कानों के पास आकर बोला - "लॉन्ग लास्टिंग यूज़ करती तो ऐसा नहीं होता"। फिर वह अपने दोस्तों के साथ हँसता रहा। मैं उस वक़्त जोर-जोर से रोना चाहती थी। भगवान से मना रही थी कि की ये धरती फट जाये और मैं उस मे समा जायूँ। पर, ऐसा कुछ नहीं हो रहा था। सो, मैं धीरे से उठी और सुषमा मैडम को अपनी परेशानी बता कर घर जाने की इजाजत मांग ली। राहुल की हँसी अब मुझे हर महीने याद आएगी।  
                                                     मैं इसके आगे का नहीं पढ़ पाई। खुद की लिखी डायरी को मैंने फाड़ डाला। अंदर का गुस्सा, घुटन सब चीत्कार के साथ बाहर निकल रहा था। इतने साल मैं जिस पल से आँखे चुराते आई आज वह पल मेरे सामने फिर से ज़िंदा होगया था। खुद पर मुझे आज बहुत गुस्सा आ रहा था। गुस्से में अपने को थपड मारा, यहाँ तक की अपना सिर भी दीवाल पे मारा। खुद को दीवाल पर इतनी जोर से धकेला था की चक्कर आगया। अपने  आप को समेटती हुई बिस्तर पर बैठी तो लौट आयी अपने वर्तमान में।  1993 को बीते  24 साल होगे है। 2017 में मैं पत्नी हूँ। 13साल की बेटी की माँ हूँ। मैं सधाहरण- सी घरेलु औरत हूँ। बजट-सत्र नहीं समझ आता मुझे। राजनीति भी नहीं जानती। अगर जानती हूँ तो इस बढ़ती महगांई में अपनी गृहस्थी चलाना।   
                             घर की सफाई में मिली मेरी बचपन की डायरी ने मुझे एक बात याद दिला दी है कि जो गलती मेरे मम्मी-पापा ने की थी और जो मुझ से भी हुई है वह गलती मैं अपनी बेटी के साथ नहीं दुहरायुगी।  मेरी माँ ने अंकल की गन्दी नज़र को अनदेखा किया क्योकि वह बेवजह तमाशा नहीं बनाना चाहती थी। मैं मामा की उस गन्दी हरकत वाली बात किसी को नहीं पता पाई। क्योकि मैं तमाशा नहीं बना चाहती थी। राहुल के प्रपोजल को रिजेक्ट नहीं कर पायी क्योकि मैं बेवहज का तमाशा नहीं चाहती थी। 
       मैंने उस हर बड़ी बात को "बेवजह" बना दियाथा। तमाशा न बने इस डर से मैं जिंदिगी भर अंदर ही अंदर घुटती रही। ये सब मैं अपनी बेटी के साथ नहीं होने दे सकती। मैं अपनी सोच में डूबी हुई थी कि  मेरे मोबाइल की घंटी बजी। देखा तो पलक के स्कूल से फ़ोन था। अचानक स्कूल से फ़ोन देख मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने फ़ोन उठा कर हेलो बोला। सामने से प्रिंसिपल सर बोले -" मैडम आप अभी मेरे ऑफिस आ जाए। एक जरुरी बात करनी है।  "
"क्यों क्या हुआ सर? पलक ठीक तो है  न?" मैंने घबराकर  पूछा।  
प्रिंसिपल सर सख्त आवाज़ में बोले-"आप कितनी देर में यहाँ पहुँच सकती है?"
"मुझ ३०-३५ मिनट लग जाये गए।" मैंने उसी घबराहट में जवाब दिया।
"ठीक है" कह कर प्रिंसिपल सर ने फ़ोन कट कर दिया। 
एक हाथ से मैं डायरी के फटे पन्नों को समेट रही थी और दूसरे से अविनाश का नंबर लग रही थी। 
"हेलो, सुनो जी, पलक के स्कूल से फ़ोन  आया था। मुझे बुलाया है। मैं रेडी हो कर स्कूल पहुँचती हूँ आप भी हो सके तो आजाओ  "।
"अरे यार लम्हा! प्लीज ये सब तुम देख लो। मैं अभी नहीं आ सकता। तुम रेडी हो जाओ मैं  ola या uber कर देता हूँ। और अगर कुछ हो तो बताना। बाय "।  अविनाश से बहस करना बेकार है सो मैंने डस्टबिन में सारे कागज डाले और जल्दी से कपडे बदलने लगी।  उबेर आगयी थी। मैंने पर्स उठाया और कंघी हाथ में लेकर दरवाजा लॉक कर कार में बैठ  गयी।  ड्राइवर ने जर्नी स्टार्ट करने के लिए कोड माँगा। मैंने अपने मोबाइल में मैसेज चेक किया और उसे कोड बता दिया।  मैंने पूछा- "अड्रेस पता है?" 
ड्राइवर ने बोला -"जी,पता है। अभी ट्रैफिक कम होगा इसलिए २५-३० में पहुंच जायगे"।
कार चल रही थी और मेरे मन में ढेरों आधे-अधूरे बुरे ख्याल आ-जा रहे थे। डायरी के पीले पन्ने अब भी दिमाग पर छाए हुए है। कार स्कूल गेट पर रुकी। मैंने  पूछा -" कितना हुआ?"
ड्राइवर ने बोला -" मैडम पेमेंट हो चूका है।" अविनाश ने ऑनलाइन पेमेंट कर दिया था।  मैं जल्दी से प्रिंसिपल की ऑफिस की तरफ लपकी। ऑफिस गेट पर चपरासी ने मुझे रोका। 
"मैं पलक की मम्मी।प्रिंसिपल सर ने बुलाया है।"
चपरासी हँसते हुए बोला -" जाइए।अंदर सब आपका ही इंतज़ार कर रहे है।  "
चपरासी की हंसी में मुझे राहुल की हंसी सुनाई दे रही थी। करंट-सा दौड़ गया मेरे पूरे शरीर में। आपने आप को संभालते हुए मैंने दरवाजा खोला तो देखा दरवाजे के बाई ओर पलक अकेली खड़ी सुबक रही है। पलक के ही उम्र का लड़का  जो शायद उसकी ही क्लास में पढता है अपने अभिभावक के पास खड़ा है।
प्रिंसिपल सर मुझे देखते ही बोले - "मैडम ये सब मेरे स्कूल में नहीं चलता। आप अपनी बेटी को समझा दे।"
"सर, प्लीज मुझे बताये की हुआ क्या है?" मैंने विनर्मता से पूछा।  पलक दौड़ कर मेरे गले लग कर रोने लगी। मेरा गाला भी भर आया।  फिर मैंने धीरे से उसके कान में कहा- "dont worry palak". मैं हूँ तुम्हारे साथ। "
       लड़के का नाम राज है और वह अपनी मम्मी से एकदम सट कर खड़ा है। राज की  मम्मी ने एक दम से तीखी आवाज़ में बोलना शुरू  किया- "एक तो आपकी बेटी इतना टाईट कुर्ता पहनती है।  ऊपर से अपनी ब्रा ....." वह बोलते-बोलते रुक गयी।  मैं एकटक उन्हें देखे जा रही थी।  इस बार राज के पापा बोले -"अब दिखेगा तो लड़के क्या करेंगे?"
मैं ने बीच  में ही पूछा-"क्या दिखेगा? आप साफ़-साफ़ बोलिये। "
 मेरी ऊंची आवाज़ सुन कर राज के पापा तो चुप हो गए पर, उसकी मम्मी ने बोलना शुरू  कर  दिया- " ब्रा की बैल्ट दिखा रही थी आपकी लड़की।  मेरे बेटे ने तो बस टच कर उसको....." उनकी बात आगे सुने बिना ही मैंने राज को पूरी ताकत से अपनी ओर खींचा और जोर का तमाचा उसकी गाल पर मारा। मेरी इस हरकत की उम्मीद वहाँ  मौजूद किसी भी शख्स को नहीं थी। खुद मुझे भी नहीं थी। प्रिंसिपल सर अपनी कुर्सी से उठते हुए बोले- "मैडम आपने ये गलत किया है।  गलती आपकी लड़की की है.." 
मैं बीच में ही उनकी बात को काटते हुए बोली-"गलती?कैसी गलती सर? ब्रा की स्ट्रिप अगर दिखेगी तो राह चलते लड़को को  लॉइसेन्स मिल जाता है छूने का? और "टाइट कुर्ता " क्या होता है? इनके ब्लाउज से ज्यादा टाइट और डीप कुर्ता  है क्या पलक का?"
 मैंने पलक को कंधे से पकड़ा और जोर से हिलाते हुए पूछा- " पलक जब राज ने तुझे छुआ तो तूने कंप्लेन क्यों किया? उसी वक़्त उसका हाथ क्यों नहीं तोड़ दिया?"
पलक अपनी सिसकी रूकते हुए बोली -"मैंने भी थप्पड़ मारा था मम्मी। इसलिए तो आपको यहाँ बुलाया है।"
उसका जवाब सुन मैं अपनी हँसी नहीं रोक पायी। मैं खिलखिला कर हंस हैं पड़ी और जोर से अपनी बेटी को,अपनी बहादुर बेटी को अपने गले से लगा लिया। नब्बे दशक की लम्हा को इक्सिवि सदी की पलक ने बचा लिया था। पिछली पीढ़ी की माँ तमाशा न बने इस लिए चुप थी। इस पीढ़ी की माँ ने साबित कर दिया था की कि कभी-कभी तमाशा बनना चाहिए ताकि मिसाल बन सको।  



08 जून, 2017

ये कौन लोग हैं ?


मशहूर एक्टर और फ्लिम निर्माता गुरु दत्त साहब ने "प्यासा" फिल्म 1957 में बनाई थी. मुझे ये फिल्म देखने का सौभाग अपने कॉलेज में मिला था जब मेरे डाक्यूमेंट्री टीचर, "श्री मेघनाथ सर" जी ने ये फिल्म दिखाई। इस फिल्म के एक दृश्य में एक तवायफ़ अपने ग्राहक को खुश कर रही होती है तभी उसका बच्चा भूख से रोने लगता है। वह अपना नाच छोड़ जाना चाहती है ताकि अपने भूखे बच्चे को अपना दूध पीला सके। पर, उसे जाने नहीं दिया जाता। कभी मौका मिले तो ये फिल्म देख लीजियेगा।
                         यकीकन नहीं होता। सच,मनो अब भी विश्वास नहीं हो रहा कि अपनी हवस को शांत करने के लिए के लिए तुमने 9 माह की बच्ची को फेक दिया। क्यों ? इज्जत तो तुम लूट ही रहे थे। उसके कपड़ों के साथ उसकी आतम को भी चिर रहे थे। वह तो वैसे ही असाहय-सी थी। फिर क्या जरुरत थी हैवानिएत  की नयी परकाष्ठा साबित करने की?      
            मुझे पता है, तुम मिलोगे कहीं। मेरे साथ ट्रैन में होंगे, बस में, भीड़ में मेरे बगल में खड़े हो मुझे सुघने की कोशिश करोगे। कैसे पहचानूँगी तुम्हे? एक आम-सी लड़की को देश  की "निर्भया" बनाने वाले तुम्हीं थे न? तुम ही हो न उस एसिड अटैक के पीछे वाले हाथ के मालिक ?  और हाँ ,वह तुम्ही हो न लड़कियों  का चरित्र उसकी स्कर्ट की लम्बाई से नापने वाले?
                           वाह रे! मेरा देश और मेरे देशवासी। गौ-हत्या महापाप है। हर तरफ इसके लिए सजा की मागँ हो रही है। कितने गौ-कत्लखानों को बंद करा दिया गया। उस में काम करने वाले मजदूर अपने लिए रोटी का इंतजाम कैसे कर रहे है ,यह वहीं जाने।
                      हम मरी हुई गाय की चमड़ी उखाड़ने वाले को मार-मार कर अधमरा कर देते है।  लेकिन 17 साल का लड़का बलात्कार करते हुए लौहे की रॉड को एक लड़की की योनि में घुसा देता है तो उसे नाबालिक कह कर छोड़ देते है। मुझे घिन्न  आती है ऐसे दोगले विचारधाराओं वाले समाज से। आप लोग नज़र उठायो, समझो! मंदिर-मस्जिद , गौ-हत्या सिर्फ मुद्दा है; राजनीतिक मुद्दा। विकास का सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए कि बलात्कारियों को मौत की सजा मिलनी और उसे काम कुछ  भी नहीं।

 


11 अप्रैल, 2017

चाहत है अगर सुकून पाने की...


आध्यात्मिक लेखक रोबिन शर्मा ने "5 o'clock club" के बारे में लिखा है कि जिस व्यक्ति के दिनचर्या में सुबह उठना शामिल है, वह अपनी जिंदिगी ज्यादा व्यवस्थित ढंग से और सुकून से जीता है। हमारे भारतीय संस्कृती में तो बर्ह्म मुहर्त में उठने की परम्परा है।परन्तु, वैश्यविकरण और नीजिकरण के कारण हमारी जीवन शैली बहुत बदल गयी है। 9 टू 5 जॉब बस कहने भर को है।वरना,अब तो 12-13 घण्टे काम करना पड़ता है।आज की तारीख में सरकारी और गैर-सरकारी दफ्तरों में काम का बोझ बढ़ता ही जा रहा है।ऐसे में जो इंसान रात के एक बजे सोये वह सुबह 5 बजे कैसे उठे? यह सावल नही समस्या है।इसका समाधान भी हमारे-आपकी आँखों के सामने है। जरूरत है तो watsup को ऑफ करने की,फेसबुक से लॉगआउट होने की और टीवी के रिमोट को छोड़ने की।
                        जी हाँ,आपने सही बात पकड़ी है। आप जितनी जल्दी इन चीजों को अपने से दूर करेगें उतनी जल्दी आप बिस्तर पर,किसी अपनो के कंधे को तकिया बना कर सो रहे होंगे। जब ऐसा सोच कर ही इतना सुकून मिल रहा है तो ऐसा कर के भी देखिए। ऐसा करना मुश्किल है इसलिए हम इसे तीन स्टेप में करने की कोशिश करेगें।

                 " नियम  "
1) रात 11:00 बजे के बाद इंटरनेट का इस्तमाल नहीं करना।
2)रात 11:30 बजे के बाद नाही टीवी देखना और नाही फ़ोन पर बात करना।
3)  सुबह 6:00बजे उठना।
    
 फर्स्ट स्टेप- पहले तीन दिन इन नियमों का पालन करें।अगर आपने यह तीन दिन पार लगा लिया तो सचमुच आप में बहुत हिम्मत है।
   
  सेकण्ड स्टेप- अब पाँच दिन का लक्ष्य रखें।आपने अगर इन आठ दिनों को भी पार कर लिया तो आपमें अपनी जिंदिगी को बदलने की अद्भुत शक्ति है।
      
थर्ड और आखरी स्टेप- अपनी 8 दिन की कठोर तपस्या की सफलता की ख़ुशी को दो-से गुना करें और अगले 16 दिन इंटरनेट और टीवी को जल्दी शुभरात्रि बोलें।
                        आपने पूरे 24 दिन इस कठिन नियमों का पालन किया है।अब यह नियम आपको कष्टदायक नही लगेंगे क्योंकि अब-तक यह आपकी आदत बन चुके होंगे। मनोविज्ञान कहता है कि किसी भी मनुष्य को कोई भी आदत विकसीत करने में 21 दिन लगते है और ज़नाब, आपने तो 24 दिन पूरे किये है।
                       आज की खुशहाल जिंदिगी के बस यहीं तीन नियम हैं। जहाँ इतना पैसा कमाया हैं वहाँ, खुद के लिए थोड़ा सुकून भी खरीद लो।